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रसार्णवसुधाकरः
अत्र रूपादिदृष्टकारणनिरपेक्षा पार्वत्या रतिर्जन्मान्तरवासनारूपा निसगदिव भवति। स्वभाव से रति जैसे (कुमारसम्भव ५/८२ में)
अथवा इस प्रकार के विवाद से प्रयोजन ही क्या है? तुमने शिव के विषय में जो कुछ सुन रखा है यदि वह यथार्थ ही हो तो भी मेरा मन तो एक मात्र उन्हीं शिव में दृढ़ता के साथ रम गया है। अपनी इच्छा से व्यवहार करने वाला (प्रेम करने वाला) निन्दा से कभी नहीं डरता।।369।।
यहाँ पार्वती की रूप इत्यादि दृष्टकारण की अवहेलना वाली जन्मान्तर की वासना रूप रति स्वभाव (अलौकिकता) से ही होती है।
अभिनियोगोऽभिनिवेशः। तदेकपरत्वमिति यावत् । तेन यथा (मालतीमाधवे ४.८)
तन्मे मनः क्षिपति यत् सरसप्रहारमालोक्य मामगणितस्खलदुत्तरीया । त्रस्तैकहायनकुरङ्गविलोलदृष्टि
राश्लेषयत्यमृतसंवलितैरपाङ्गः ।।370।। अत्रोत्तरीयस्खलनादिसूचितेन मदयन्तिकाप्रेमाभियोगेन मकरन्दस्य तत्र रतिरुत्पद्यते। अभिनियोग का अर्थ है- अभिनिवेश (मन से लगाव)। दोनों एक ही हैं। उस (अभिनियोग) से जैसे मालतीमाधव ४/८ में)
(मकरन्द कहता है-) आर्द्र प्रहार वाले मुझको देख कर अपने स्तनों से गिरते हुए उत्तरीय की परवाह न करके भयभीत (एक वर्ष के) मृगशावक के समान चञ्चल नेत्रों वाली (मदयन्तिका) ने अमृत से मिश्रित अङ्गों से जो मेरा आलिङ्गन किया, वह मेरे मन को चञ्चल कर रहा है।।370।।
यहाँ उत्तरीय के स्खलन इत्यादि द्वारा सूचित मदयन्तिका के प्रेम-लगाव के कारण मकरन्द की वहाँ रति उत्पन हो रही है।
संसर्गेण यथा (महावीचरिते१.२१)
उत्पतिर्देवयजनाद् ब्रह्मवादी पिता नृपः ।
सुप्रसनोज्ज्वला मूर्तिरस्याः स्नेहं करोति मे ।।371 ।। अत्र देवयजनजनकादिसम्बन्धगौरवेण सीतायां रामस्य रतिः। संसर्ग से रति जैसे (महावीरचरित १/२१ में)
सुन्दर मूर्ति, ब्रह्मज्ञानी राजा पिता, यज्ञभूमि से उत्पत्ति, यह सब मुझे इस पर स्नेह करने को प्रेरित कर रहा है।।371।।