________________
| १३०
रसार्णवसुधाकरः --
३. रोमाञ्च- विस्मय, उत्साह, हर्ष इत्यादि से रोमाञ्च होता है। उसमें रोएँ का खड़ा हो जाना, उल्लास, गात्र का गाढ़ स्पर्श इत्यादि विक्रियाएँ होती हैं।।३०५उ.-३०६पू.।।
विस्मयेन यथा
राघवस्य गुरुसारनिर्भरप्रौढिमाजगवभञ्जनोद्भटम् ।
दोर्बलं श्रुतवतः सभान्तरे रोमहर्षणमभूत् पिनाकिनः ।।209 ।। विस्मय से रोमाञ्च जैसे
सभी के बीच में श्रीराम के श्रेष्ठ बलसम्पन्न और आजगव धनुष के भञ्जन से उत्कृष्ट भुजबल (भुजाओं के बल) को सुनते हुए शङ्कर जी को (विस्मय के कारण) रोमाञ्च हो गया।।209।।
उत्साहेन यथा
अन्त्रैः स्वैरपि संयताग्रचरणो मूर्छाविरामक्षणे स्वाधीनव्रणिताङ्गशस्त्रविवरे रोमोद्गमं वर्मयन् । भग्नानद्बलयनिजान् परभटानातर्जयन्निष्ठुरं
धन्यो धाम जयश्रियः पृथुरणस्तम्भे पताकायते ।।210।। अत्रोत्साहेन रोमाञ्चः। उत्साह से रोमाञ्च जैसे
(युद्ध स्थल पर) मूर्छा के कारण विश्राम के समय में अपनी बाहर निकली हुई अंतड़ियों के कारण अपने पैरों को आगे से स्थिर करके और शस्त्र घूसने के कारण बने हुए छिद्र से रक्त बहते हुए अङ्गों को अपने वश में करते हुए रोमाञ्च को कवच बनाता हुआ तथा अपने घायल योद्धाओं को घेरते हुए और निष्ठुरतापूर्वक डाँटता हुआ (वह) विजय-लक्ष्मी का घर (रूपी योद्धा) धन्य है (जो) भीषण युद्धरूपी खम्भे पर पताका (ध्वजा) के समान लहरा रहा है।।210।।
यहाँ उत्साह के कारण रोमाञ्च है। हर्षेण यथा (नैषघचरिते १४/५०)
रोमाणि सर्वाण्यपि बालभावाद्वरश्रियं वीक्षितुमुत्सुकानि । तस्यास्तदा कोरकिताङ्गयष्टे
रुद्ग्रीविकादानमिवान्वभूवन् ।।211 ।। हर्ष से जैसे (नैषधचरित १४/५० में)
उस समय पुलकित देहयष्टि वाली उस (दमयन्ती) के बालभाव (अर्थात् शिशु होने और केश होने) के कारण दूल्हा (नल) की शोभा देखने के लिए उत्सुक सम्पूर्ण ही रोम उग्रीवता के आदान (अर्थात् ऊंची गर्दन कर उचकने की स्थिति) का अनुभव- सा कर रहे थे।।211।।