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अथालस्यम्
द्वितीयो विलासः
व्यज्येते ।
।।६०।।
स्वभावश्रमसौहित्यगर्भनिर्भरतादिभिः कृच्छात् क्रियोन्मुखत्वं यत् तदालस्यमिह क्रियाः । अङ्गभङ्गः क्रियाद्वेषो जृम्भणाक्षिविमर्दने ।। ६१ ।। शय्यासनैकप्रियता निद्रातन्द्रादयोऽपि च ।।
(१६) आलस्य - स्वभात, परिश्रम, तृप्ति (सन्तुष्टि) गर्भ - भार इत्यादि से कष्ट के कारण कार्य से उन्मुख होना आलस्य कहलाता है। इसमें अङ्गभङ्गता ( का बहाना करना ), कार्य से अरुचि (अनिच्छा), जमुहाई लेना, नेत्रों का मलना, शय्या और आसन के प्रति प्रेम होना, निद्रा, थकावट आदि विक्रियाएँ होती हैं ॥ ६० ०उ.-६२पू.।। स्वभावश्रमाभ्यां यथा (शिशुपालवधे ७/६८)मुहुरिति वनविभ्रमाभिषङ्गा
दितमि तदा नितरां नितम्बिनीभिः ।
मृदुतरतनवोऽलसाः
प्रकृत्या
चिरमपि ताः किमुत प्रयासभाजः ।। 291।।
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स्वभाव और परिश्रम से आलस्य जैसे (शिशुपालवधे ७/६८ में) -
नितम्बिनी स्त्रियाँ फिर इस प्रकार वन विहार में आसक्त होने से अत्यन्त खिन्न हो गयी ।
(उनका ऐसा थक जाना उचित ही था, क्योंकि) अत्यन्त सुकुमार शरीर वाली अङ्गनाएँ स्वभाव से ही आलसी होती हैं, तब फिर बहुत देर तक परिश्रम करने पर वैसी (जड़ आलसयुक्त) हो गयी, इसमें कहना ही क्या है ? ।। 291 ।।
सौहित्यं भोजनतृप्तिः ।
तेन यथा ( अनर्घराघवे १.२८)
त्रैलोक्यभयलग्नकेन भवता वीरेण विस्मारितस्तज्जीमूतमुहूर्तमण्डनधनुःपण्डित्यमाखण्डलः किञ्चाजस्रमखार्पितेन हविषा सम्फुल्लमांसोल्लस
त्सर्वाङ्गीणवलीविलुप्तनयनव्यूहः कथं वर्तते । 129211
अत्र मेदोवृद्धया शक्रस्य सौहित्यम् । तत्कृतमालस्यं कथं वर्तत इत्यनेन वागारम्भेण
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सौहित्य का तात्पर्य है भोजन से तृप्ति ।
उस भोजनतृप्ति से जैसे (अनर्धराघव १.२८ में)
त्रैलोक्य को अभयदान देने वाले आपने मेघरूप धनुष की पण्डितता से इन्द्र को सूना