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रसार्णवसुधाकरः
अथ वितर्क:
ऊहो वितर्कः सन्देहविमर्शप्रत्ययादिभिः । जनितो निर्णयान्तः स्यादसत्य सत्य एव वा ।।७।।
तत्रानुभावाः स्युरमी भूशिरःकम्पनादयः ।
(२१) वितर्क- सन्देह और विमर्श के प्रत्यय (धारणा) इत्यादि के द्वारा निर्णय के अन्त में 'यह असत्य है अथवा सत्य' यह ऊहापोह वितर्क कहलाता है। उस (वितर्क) में भौहों और शिर का हिलाना इत्यादि अनुभाव होते हैं।।७०-७१पू.।।
सन्देहप्रत्यायाद् यथा (विल्हणचरिते पूर्वपञ्चाशते ४६)
अङ्कं केऽपि शशङ्किरे जलनिधेः पङ्क परेमेनिरे सारङ्ग कतिचिच्च सञ्जगदिरे भूच्छायमैच्छन् परे । इन्दौ यद् दलितेन्द्रनीलशकलश्यामं दरीदृश्यते
तत् सान्द्रं निशि पीतमन्धतमसं कुक्षिस्थमाचक्ष्महे ।।315।।
अत्र चन्द्रगतकलङ्कविषये बहुविधप्रतिपत्त्या सन्दिहानस्य चन्द्रगिलितान्यकारोऽयमित्यसत्यात्मको भवति।
सन्देहप्रत्यय से वितर्क जैसे (बिल्हणचरितपूर्वपञ्चाशत ४६ में)
(चन्द्रमण्डल के मध्य कालिमायुक्त चिह्न को) कोई समुद्र के विकार की शङ्का करते हैं तो कोई कीचड़ मानते हैं, कुछ लोग, यह मृग है, ऐसा कहते हैं तो कुछ लोगों को पृथ्वी की छाया दिखायी पड़ी, किन्तु इन्द्रनीलमणि के टुकड़े के समान जो मध्य में श्यामता दिखायी पड़ रही है उसे हम रात्रि में भी पीत घने अंधकार की कालिमा कहते हैं।।315 ।।
यहाँ चन्द्रगत कलङ्क के विषय में अनेक प्रकार के तर्क से सन्देह का 'यह चन्द्र द्वारा निगलित अन्धकार है' यह असत्यात्मकता हो जाती है।
विमशों विचारः। तेन यथा (मालतीमाधवे१.१८)
गमनमलसं शून्या दृष्टिः शरीरमसौष्ठवं श्वसितमधिकं किन्वेतत् स्यात् किमन्यदतोऽथ वा । भ्रमति भुवने कन्दर्पाज्ञा विकारि च यौवनं
ललितमधुरांस्ते ते भावाः क्षिपन्ति च धीरताम् ।।316।।
अत्र माधवगतां चिन्तामुपलभ्य किमत्र कारणमिति विमृशता मकरन्देन मन्मथनिबन्धन एवायं भाव इति सम्यनिर्णयान्तो वितर्कः।
विमर्श विचार।