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द्वितीयो विलासः
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निर्वेद की स्वतंत्रता जैसे (वैराग्यशतक ७१ में)
सकल मनोरथ प्रदान करने वाली सम्पदाएँ प्राप्त कर लीं तो क्या ? शत्रुओं के सिर पर पैर रख दिया तो क्या ? मित्र आदि प्रियजनों को धन-सम्पत्ति से तृप्त कर दिया तो क्या ? शरीरधारियों के शरीर कल्पपर्यन्त स्थित रहे तो क्या ? ।।358 ।।
यहाँ निर्वेद के दूसरे का अङ्गत्व न होने से स्वतन्त्रता है।
इत्यादि । ननु निर्वेदस्य शान्तरसस्थायित्वं कैश्चिदुक्तम् । कथमस्यान्यरसोपकरणत्वमिति चेद्, उच्यते । सति खलु ग्रामे सीमासम्भवना । स्थायित्वं नाम संस्कारपाटवेन भावस्य (वासनारूपेण स्थितस्य कारणवशादुद्बोधितस्य) मुहुर्मुहुर्नवीभावः । तेन निर्वेदवासनावासिते भावकचेतसि नैष्फल्येनाभिमतेषु विभावादिषु (भावकानां प्रथमं प्रवृत्तेरेवासम्भवात्) तत्सामग्रीफलभूतस्य निर्वेदस्योत्पत्तिरेव सङ्गच्छते, किं पुनः स्थायित्वम् । किञ्चासति निर्वेदस्थायिनि शान्तरूपो भावकानामास्वादश्चित्रगतकदलीफलरसास्वादलम्पटानां राजशुकानां विवेकसहोदरो भवेदिति कृतं सरम्भेन ।
निर्वेद का शान्त रस के स्थायिभावत्व का अभाव - (शङ्का) कुछ लोग निर्वेद को शान्त रस का स्थायी भाव कहते हैं फिर इसका अन्य रसों का उपकरणत्व कैसे होगा (समाधान) समुच्चय (संग्रह) में सीमा की सम्भावना होती है। संस्कार की तीक्ष्णता से (वासना रूप में स्थित तथा कारणवशात् उद्घोधित) भाव का बार-बार नवीन होना स्थायित्व कहलाता है। इस कारण से निर्वेद की वासना से वासित भावक के मन में निष्फलता - पूर्वक अभिमत विभाव इत्यादि में (भावकों की प्रथम प्रवृत्ति के असम्भव होने के कारण) उस सामग्री के फलीभूत निर्वेद की उत्पत्ति ही नहीं होती । फिर उसका स्थायित्व कैसे होगा। इस प्रकार निर्वेद के स्थायी न होने पर भावकों का शान्तरूप आस्वाद चित्रित केले के आस्वाद के लोभी तोतों के विवेक के समान होता है- यह आरम्भ में ही किया गया ( कहा गया) है।
विषादस्य परतन्त्रत्वं यथा ( मालतीमाधवे १/३६ )वारं वारं तिरयति दृशामुद्गतो बाष्पपूरस्तत्सङ्कल्पोपहितजडिम स्तम्भमभ्येति गात्रम् । सद्यः स्विद्यन्नयमविरतोत्कम्पलोलाङ्गुलीकः पाणिर्लेखाविधिषु नितरां वर्तते किं करोमि । 1359 ।।
अत्र विषादस्य शृङ्गाराङ्गत्वम् ।
विषाद की परतन्त्रता जैसे ( मालतीमाधवे १.३६ मे) -
उत्पन्न अश्रु — प्रवाह नेत्रों को बार-बार आवृत्त कर दे रहा है। प्रिया की चिन्ता से कार्य
में असमर्थता को प्राप्त करने वाला शरीर स्तब्ध हो जाता है। यह हाथ चित्र बनाने के कार्यों में तत्क्षण
पसीना आने से और लगातार काँपने से चञ्चल अङ्गुलियों से युक्त हो जाता है, मैं क्या करूं। 1359 ।।