________________
द्वितीयो विलासः
[१९५]
उक्तेष्वन्तर्भवन्तीति न पृथक्तवेन दर्शिताः ।
उत्तमादि में औचित्य से सात्विक तथा व्यभिचारीभावों का कथन- उत्तम, मध्यम और अधम नायक में ये सात्विक और व्यभिचारी भाव होते हैं, विभावों और अनुभावों के साथ उनका यथोचित वर्णन कर दिया गया ॥९३उ.-९४पू.।।
___ उद्वेगादि का कथित व्याभिचारी भावों में अन्तर्भाव- उद्वेग, स्नेह, दम्भ, ईर्ष्या- ये मुख्यतया चित्तवृत्तियाँ हैं जिनका उपर्युक्त व्याभिचारी भावों में अन्तर्भाव हो जाता है इसलिए अलग से उनका विवेचन नहीं किया गया है।।९४उ.-९५पू.॥
तथाहि- परप्रतारणरूपस्य दम्भस्य जिह्मतावहित्थयोरन्तर्भावः। चित्तद्रवतालक्षणस्य स्नेहस्य हर्षेऽन्तर्भावः। स्वविषयदानमानाघमर्षणरूपाया ईर्ष्याया अमर्षेऽन्तर्भावः। परविषयायास्त्वसूयायाम्। उद्वेगस्य निर्वेदविषादादिषु यथोचितमन्तर्भाव! इत्यादि द्रष्टव्यम्।
जैसे कि पर प्रताड़ना (दूसरों को ताड़ना देना) रूपी दम्भ का जिह्मता और अवहित्था में अन्तर्भाव हो जाता है। चित्त द्रवण (चित्त का पिघलना) रूपी स्नेह का हर्ष में अन्तर्भाव हो जाता है। स्वविषयक दान, मान इत्यादि अमर्षण (असहनशीलता) रूपी ईष्या का अमर्ष में अन्तर्भाव हो जाता है। पर विषयक (दान मान इत्यादि अमर्षण रूपी ईष्या का) असूया में अन्तर्भाव हो जाता है। उद्वेग का तो निर्वेद, विषाद आदि में यथोचित अन्तर्भाव हो जाता है। ऐसे ही सभी को समझ लेना चाहिए।
तथा च भावप्रकाशिकाकार:
अन्येऽपि यदि भावाः स्युश्चित्तवृत्तिविरोषतः ।
अन्तर्भावस्तु सर्वेषां द्रष्टव्यो व्यभिचारिषु ।। इति जैसा कि भावप्रकाशिकाकार ने कहा है
यदि चित्तवृत्ति विशेष से अन्य भी भाव हों तो उन सभी भावों का अन्तर्भाव (उपर्युक्त) व्यभिचारी भावों में समझ लेना चाहिए।।
विभावा अनुभावाश्च ते भवन्ति परस्परम् ।।९५।।
कार्यकारणभावस्तु ज्ञेयः प्रायेण लोकतः। विभावादि को लोक व्यवहार से जानना- वे विभाव और अनुभाव एक दूसरे से सम्बन्धित होते हैं। उनका कार्य- कारण भाव प्राय: लोक (व्यवहार) से समझ लेना चाहिए।।९५उ.-९६पू.॥
तथाहि- सन्तापस्य दैन्यं प्रति विभावत्वं ग्लानिं प्रत्यनुभावत्वं च। प्रहारस्य प्रलयमोहो प्रति विभावत्वम् औग्र्यं प्रत्यनुभावत्वं च। विषादस्योत्पातावेगं प्रत्यनुभावत्वं स्तम्भ प्रति विभावत्वम् । व्याधेग्लानिस्तम्भप्रलयादीन् प्रति विभावत्वम् ।
रसा.१६