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रसार्णवसुधाकरः .
हुए स्तन वाली शातोदरी (रमणी, मनोहर पेट वाली) सो रही है।।348।।
व्यायामाद् यथा (उत्तररामचरिते १/२४)
अलसलुलितमुग्धान्यध्वसम्पात्खेदात् प्रशिथिलपरिरम्भैर्दत्तसंवाहनानि । परिमृदितमृणालीदुर्बलान्यङ्गकानि
त्वमुरसि मम कृत्वा यत्र निद्रामवाप्ता ।।349।। व्यायाम से निद्रा जैसे (उत्तररामचरित १/२४ में)
जहाँ पर तुम मार्ग में चलने के परिश्रम से आलस्ययुक्त, कोमल और सुन्दर, दृढ़ आलिङ्गनों से दाबे गये और परिमर्दित कमल के डंडियों के सदृश दुर्बल अङ्गों को मेरी छाती पर रख कर सो गयी थी।।349।।
नैश्चिन्त्याद् यथा (अनर्घराघवे १.२७)
दत्तेन्द्राभयदक्षिणाद्भुतभुजासम्भारगम्भीरया त्ववृत्या शिथिलीकृतस्त्रिभुवनत्राणाय नारायणः ।
अन्तस्तोषतुषारसौरभमयश्वासनिलापूरणप्राणोत्तुङ्गभुजङ्गतल्पमधुना भद्रेण निद्रायते ।।350।। निश्चिन्तता से जैसे (अनर्घराघव १.२७ में)
इन्द्र को अभय देने वाले आपके भुजबल गम्भीरव्यापारों ने नारायण के शिर से भुवन रक्षा का भार उतार दिया है, अतः नारायण आन्तरिक सन्तोष को अभिव्यक्त करने वाला श्वासग्रहण करते हैं जिससे नारायण के तल्पभुज-गपवनाश होने से स्थूल होते जाते हैं, और भगवान् नारायण उस पनगशयन पर आनन्द की नींद सोते हैं।।350।।
श्रमाद् यथा (कुमारसम्भवे ८1८४)
केवलं प्रियतमादयालुना ज्योतिषामवनतासु पंङ्कितषु । तेन तत्परिगृहीतवक्षसा नेत्रमीलनकुतूहलं कृतम् ।।351।। श्रम से निद्रा जैसे- (कुमारसम्भव ८1८४ में)
इस प्रकार सम्भोग करते-करते जब रात का पिछला पहर आ गया और तारों की पंक्तियाँ छटकने लगी तब शंकर जी ने केवल अपनी प्रिया के ऊपर दया करके (न कि तृप्त होकर) पार्वती जी की छाती में चिपके हुए ही अपनी आँखे मूंद लेने का खिलवाड़ किया।।351।।
अथ सुप्ति:
उद्रेक एव निद्रायाः सप्तिः स्यात्तत्र विक्रियाः । इन्द्रियोपरतिर्नेत्रमीलनं त्रस्तगात्रता ।।९।।