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द्वितीयो विलासः
कठोर मुख पर मार्जन (पोछना) किया। 1325।।
यहाँ उच्चैश्रशवा की प्राप्ति होने से देवेन्द्र का हर्ष स्पष्ट है। मित्रसङ्गमाद् यथा (शिशुपालवधे १३/१६) - 'इभकुम्भतुङ्गकठिनेतरेतरस्तनभारदूरविनिवारितोदरा
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परिफुल्लगण्डयुगलाःपरस्परं परिरेभिरे कुकुरकौरवस्त्रियः ।।326।।
मित्र - मिलन से हर्ष जैसे (शिशुपालवध १३.१६ में ) -
हाथी के मस्तक के ललाट- स्थल के समान ऊँचे उठे एक दूसरे स्तन के भारों से निवारित अस्पष्ट रूप से दिखने वाले उदरों वाली तथा (हर्ष से) पुलकित गण्डस्थलीं ( कपोलफलकों) - वाली यादवों और पाण्डवों की स्त्रियाँ परस्पर आश्लिष्ट सी हुयीं (गले से मिलीं ) ।।326 ।।
मित्रसङ्गमः पूज्यादिसङ्गमादीनामुपलक्षणम् ।
मित्रमिलन सम्माननीय लोगों से मिलने इत्यादि को उपलक्षित करने वाला है।
पूज्यसङ्गमेन यथा (शिशुपालवधे १/२३)
युगान्तकालप्रतिसंहृतात्मनो
जगन्ति यस्यां सविकासमासत् । तनौ ममुस्तत्र न कैटभद्विष
स्तपोधनाभ्यागमसम्भवा मुदः 1132611
पूज्य - समागम से हर्ष जैसे ( शिशुपालवध १.२३ मे) -
युगों की समाप्ति के समय (प्रलयकाल) में (समस्त जीवों को अन्तर्भूत कर लेने वाले कैटभ नामक राक्षस के शत्रु भगवान् श्रीकृष्ण के जिस शरीर में चौदहों भुवन विस्तार के साथ रहते उसी श्रीकृष्ण के शरीर में तपस्विश्रेष्ठ नारद के आगमन से उत्पन्न आनन्द न समा सका ।। 327 ।।
देवप्रसादाद् यथा (रघुवंशे २/६८) - तस्याः प्रसन्नेन्दुमुखः प्रसादं गुरुर्नृपाणां गुरवे निवेद्य । प्रहर्षचिह्नानुमितं प्रियायै
शशंस वाचा पुनरुक्तयेव ।।328
देवों की प्रसन्नता से हर्ष जैसे (रघुवंश १२ / ६८ में ) -
निर्मल चन्द्रमा के समान मुख वाले, राजाओं में श्रेष्ठ दिलीप ने हर्ष के चिह्नों से अनुमित होने वाले नन्दिनी के वरदान रूपी अनुग्रह की दुबारा कही हुई के समान वाणी द्वारा गुरु से निवेदन कर रानी से कहा ।। 328 ।।
आदिशब्दाद् गुरुराजप्रसादादयः ।