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रसार्णवसुधाकरः
अथौग्र्यम
अपराधावमानाभ्यां धैर्यादिग्रहणादिभिः । असत्प्रलापनाद्यैश्च कृतं चण्डत्वमुग्रता ।।८१।। क्रियास्तत्रास्यनयनरागो बन्धनताडने ।
शिरसः कम्पनं स्वेदवधनिर्भत्सनादयः ।।८।।
(२७) उग्रता- अपराध, तिरस्कार, धैर्यादिग्रहण, असत्य प्रलाप, इत्यादि से (दुष्ट के प्रति) प्रचण्डता (क्रोध) उग्रता कहलती है। नेत्रों का लाल हो जाना, बाँधना, पीटना, शिर हिलाना, पसीना होना, मार डालना, धमकाना (निर्भत्सन) इत्यादि अनुभाव होते है।।८१-८२॥
अपराधाद् यथा (मालतीमाधवे ५.३१)
प्रणयिसखी सलीलपरिहासरसाधिगतैललितशिरीषपुष्पहननैरपि ताम्यति यत् । वपुषि वधाय तत्र तव शस्त्रमुपक्षिपतः
पततु शिरस्यकाण्डयमदण्ड इवैष भुजः ।।334। अत्र मालतीनिकाररूपादपराधान्माधवस्यौम्यम् । अपराध से उग्रता जैसे (मालतीमाधव ५.३१ में)
(माधव अघोरकण्ठ से कहता है-रे रे पापीजन!) प्रणययुक्त सखीजनों के परिहास में राग से प्राप्त कोमल शिरीष पुष्पों के प्रहारों से भी जो (मालती का) शरीर म्लान हो जाता है, वैसे शरीर पर मारने के लिए शस्त्र गिराने वाले तुम्हारे शिर पर आकस्मिक रूप से पतनशील यमदण्ड के समान यह मेरा हाथ चले।।334।।
यहाँ मालती के वधरूपी अपराध से माधव की उग्रता का कथन हुआ है।। अवमानाद् यथा
अज्ञातपूर्वां द्विषतामवज्ञां विज्ञापयन्तं प्रति रुष्टचेताः । आज्ञाहरं प्राज्ञविनिन्द्यकर्मा
यज्ञाशिवैरी गदया जघान ।।335।। तिरस्कार से उग्रता जैसे
शत्रु के तिरस्कार को पहले बिना जाने ही शत्रुओं के प्रति क्रुद्ध चित्त वाले, प्राज्ञों द्वारा निन्दित कर्म युक्त तथा देवताओं के शत्रु ने (आज्ञा को) विज्ञापित करते हुए (सुनाते हुए) आज्ञा ले जाने वाले (सेवक) को गदा से मार डाला।।335।।