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द्वितीयो विलासः
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धैर्यादिग्रहणाद् यथा(अनर्घराघवे ५.११)
भुजविटपमदेन व्यर्थमन्धंभविष्णुधिंगपसरसि चौरकारमाक्रुश्यमानः । त्वदुरसि विदधातु स्वामवस्कारकेलिं
कुटिलकरजकोटिक्रूरकर्मा जटायुः ।।336।। धैर्यादि ग्रहण से उग्रता जैसे (अनर्घराघव ५.११ में)
अपने बाहुसमुदाय के मद में व्यर्थ गर्व करने वाला तू चोर की तरह ललकारे जाने पर भी भागा जा रहा है, धिक्कार है तुमकों, तुम्हारी छाती पर अपने कुटिलनखों से क्रूरकर्म करने वाला यह जटायु अपनी अयस्कार केलिपटुता प्रकट करेगा।।336।।
असत्ालापाद् यथा (वेणीसंहारे ३/४०)
कथमपिं न निषिद्धो दुःखिना भीरुणा वा द्रुपदतनयपाणिस्थेन पित्रा ममाद्य । तव भुजबलदध्मायमानस्य वामः
शिरसि चरण एष न्यस्यते वारयैनम् ।।337 ।। असत्य प्रलाप से उप्रता जैसे (वणीसंहार ३-४० में)
(अश्वत्थामा कर्ण से कहता है-) जिंस किसी प्रकार-दुःखी अथवा डरपोक- उन मेरे पिता जी द्वारा द्रुपद के पुत्र (धृष्टद्युम्न) का हाथ (अपने शिर को काटने से) नहीं रोका गया। किन्तु (आज) बाहुबल के घमण्ड से फूले हुए तुम्हारे शिर पर यह बायाँ पैर रखा जा रहा है (यदि ताकत हो तो) इसे रोको।।33711
अथामर्षः
अधिक्षेपावमानाद्यैः क्रोधोऽमर्ष इतीर्यते । तत्र स्वेदशिरःकम्पावाधोमुख्यविचिन्तने ।।८३।।
उपायान्वेषणोत्साहव्यवसायादयः क्रियाः ।
(२८) अमर्ष- दोषारोपण (गाली देना), अनादर इत्यादि से उत्पन्न क्रोध अमर्ष कहलाता है। इसमें पसीना निकलना, शिर हिलाना, नीचे मुह करना, चिन्तन, उपाय खोजना, उत्साह, प्रयत्न इत्यादि चेष्टाएँ होती है।।८३-८४पू.॥
अधिक्षेपाद् यथा (शिशुपालवधे १५/४७)
इति भीष्मभाषितवचोर्थमधिगतवतामिव क्षणात् । क्षोभमगमदतिमात्रमसौ शिशुपालपक्षपृथिवीभृतां गणः ।।338।।