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रसार्णवसुधाकरः
उन्मीलन्भवदीयदक्षिणभुजारोमाञ्चविद्धोचलद्वाष्पैरेव विलोचनैरभिनयत्यानन्दमाखण्डलः ।। 309।। दाक्षिण्य से अवहित्या जैसे ( अनर्घराघव १.२९ में ) - आप जब इन्द्र के साथ अर्धासन पर विराजमान रहते हैं, उस समय जब किन्नरगण आपकी कीर्तिका गान करते हैं, तब इन्द्र को मात्सर्य होता है परन्तु वह आकार गोपन में बहुत चतुर होने के कारण फड़कने वाले आप के दक्षिण बाहु में वर्तमान रोमाञ्च से विद्ध उनके नयनों से निर्गत बाष्पों द्वारा आनन्द का अभिनय करके रह जाते हैं । । 309 ।।
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प्रागल्भ्येन यथा (अमरुशतके १८)
एकत्रासनसंस्थितिः परिहृता प्रत्युदगमाद् दूरतस्ताम्बूलानयनच्छलेन रभसाश्लेषोऽपि संविघ्नितः । आलापोऽपि न मिश्रितः परिजनं व्यापारयन्त्यान्तिके
कान्तं प्रत्युपचारतश्चतुरया कोपः कृतार्थीकृतः । 131011 प्रागल्भ्य से अवहित्था जैसे (अमरुशतक १८ में ) -
नायक को देर से आते हुए देख कर अगवानी में उठते हुए एक आसन पर बैठने से बचा दिया, पान लाने के बहाने से (नायक द्वारा ) वेगपूर्व किये जाते हुए आलिङ्गन में भी विघ्न कर दिया, नायक के पास सेवकों को काम में लगाती हुई उसने नायक से बात-चीत भी न की । इस प्रकार प्रियतम के प्रति औपचारिकता का प्रदर्शन करके उस प्रगल्भा (नायिका) ने अपना कोप सफल कर लिया ।।310 ।।
अथ स्मृति:
स्वास्थ्यचिन्तादृढाभ्याससदृशालोकनादिभिः ।। ६८ ।। स्मृतिः पूर्वानुभूतार्थप्रतीतिस्तत्र विक्रियाः । कम्पनोद्वहने मूर्ध्ना भ्रूविक्षेपादयोऽपि च ।। ६९ ।।
(२०) स्मृति - स्वास्थ्य, चिन्ता, दृढभ्यास, समान दशा के अवलोकन इत्यादि
से पहले अनुभव किये गये अर्थ की प्रतीति होना स्मृति कहलाता है। इसमें कम्पन, सहारा, शिर और नेत्रों का इधर-उधर घुमाना इत्यादि विकियाएँ होती है ।। ६८उ. - ६९॥
स्वास्थ्येन यथा (अभिज्ञानशाकुन्तले ५/२) - रम्याणि वीक्ष्य मधुरांश्च निशम्य शब्दान् पर्युत्सुको भवति यत् सुखितोऽपि जन्तुः । तच्चेतसा स्मरति नूनमबोधपूर्वं भावस्थिरणि जननान्तरसौहृदानि ।।311।।