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द्वितीयो विलासः
नीत्या यथा (मालतीमाधवे १/१५)
बहिः सर्वाकारप्रवणरमणीयं व्यहरन् पराभ्यूहस्थानान्यपि तदनुत्तराणि स्थगयति । जनं विद्वानेकः सकलमतिसन्धाय कपटै
स्तटस्थः स्वानर्थान् घटयति च मौनं च भजते ।।306।। नीति से अवहित्था जैसे (मालतीमाधव १/१५ में)
अद्वितीय विद्वान् बाहर से संपूर्ण आकार की अनुकूलता से सुन्दर रूप से व्यवहार करता हुआ दूसरे के अत्यन्त सूक्ष्म भी तर्क स्थानों को छिपाता है, कपटों से सब लोगों को प्रताड़ित कर स्वयम् उदासीन सा होकर अपने प्रयोजनों को सिद्ध करता है और साथ-साथ मौन का भी अवलम्बन करता है।।306।।
लज्जया यथा (कन्दर्पसम्भवे)
चिक्षेप लक्ष्मीनिटिलानखाग्रैः प्रस्वेदवार्यातपमाक्षिपन्ती ।
जुगोप देवोऽपि स रोमहर्ष जडाब्धिवाताहतिकैतवेन ।।307।। लज्जा से जैसे (कन्दर्पसम्भव में)
लक्ष्मी ने अपने मस्तक से नख के कोरों द्वारा पसीने को निवारित करने वाली धूप को बार-बार दूर किया और जड़ समुद्र की हवा के आघात के बहाने से उस देव (विष्णु) ने अपने रोमाञ्च और हर्ष को छिपा लिया।।307 ।।
साध्वसेन यथा (अनर्घराघवे ४.८)
श्रुत्वा दुश्श्रवमद्भुतं च मिथिलावृत्तान्तमन्तःपतच्चिन्तानिह्नावसावहित्थवदनतद्दिग्विप्रतीर्णस्मितः । हेलाकृष्टसुरावरोधरमणीसीमन्तसन्तानव
स्रग्वासोज्ज्वलपाणिरप्यवति मां वत्सो न लङ्गेश्वरः ।।308 ।। भय से अवहित्था जैसे (अनर्घराघव ४.८ में)
दुःश्रव तथा अद्भुत मिथिला वृत्तान्त को सुन कर हृदय में पैदा होने वाली चिन्ता से आकार- गोपनपूर्वक वदन पर जिसके हास विखर रहे हैं, अनायास आकृष्ट देवबाला रूप वन्दिनियों के शिरोमाल्यों से जिसके हाथ प्रकाशित हो रहे हैं ऐसा होकर भी रावण मुझे आज आनन्दित नहीं कर रहा है।।308।।
दाक्षिण्याद्यथा (अनर्घराघवे १.२९)
त्वय्यर्धासनभाति किनरगणोद्गीतैर्भवविक्रमैरन्तस्सम्भृतमत्सरोऽपि भगवानाकारगुप्तौ कृती ।।