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द्वितीयो विलासः
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अवज्ञया यथा (किरातार्जुनीये ११/५८)
अवधूयारिभिर्नीता हरिणैस्तुल्यवृत्तिताम् ।
अन्योऽन्यस्यापि जिह्रीमः प्रागेव सहवासिनाम् ।।300।। तिरस्कार से व्रीडा जैसे (किरातार्जुनीय ११/५८ में)
शत्रुओं से तिरस्कृत होकर हम लोग मृगों के समान जीवन वाले बनाये गये हैं, एक दूसरे से भी लज्जित होते हैं सहचारियों से मिलने पर फिर क्या कहना है?।।300।।
स्तुत्या यथा (रघुवंशे १५.२७)
तस्य संस्तूयमानस्य चरितार्थस्तपस्विभिः ।
शुशुभे विक्रमोदयं व्रीडयावनतं शिरः ।।301 ।। स्तुति से व्रीडा जैसे (रघुवंश १५/२७ में)
जब तपस्वियों का काम पूरा हो गया तब वे शत्रुघ्न की बड़ाई करने लगे पर अपनी प्रशंसा सुन कर शत्रुघ्न ने शील के मारे लजा कर अपना सिर नीचे कर लिया।।301 ।।
नवसङ्गमेन यथा (अमरुशतके,४१)
पटालग्ने पत्यौ नमयति मुखं जातविनया हठाश्लेषं वाञ्छत्यपहरति गात्राणि निभृतम् । न शक्नोत्याख्यातुं स्मितमुखंखखीदत्तनयना
ह्रिया ताम्यत्यन्तः प्रथमपरिभोगे नववधूः ।।302।। नवसङ्गम से ब्रीडा जैसे (अमरुशतक ४१ में)
(कवि नववधू की दशा का वर्णन कर रहा है) जब पति आँचल खींचता है तो वह विनययुक्त होकर मुख को नीचा कर लेती है, पति बलात् आलिङ्गन करना चाहता है तो वह चुपके से अपने अङ्ग हटा लेती है। इस प्रकार मुस्कराते हुए मुख वाली सखियों पर दृष्टि डालते हुए भी वह कुछ कह नहीं सकती, वह नववधू इस प्रथम परिहास के अवसर पर मन ही मन उद्विग्न होती है।।302।।
यहाँ नूतन समागम के कारण मुख के नीचा करने अङ्गों को हटाने, कुछ न कहने, और मन ही मन उद्विग्न होने से नववधू की व्रीडा ध्वनित होती है। प्रतीकाराकरणाद् यथा (निशानारायणस्य शाङ्गघरपद्धतौ)
उद्वृत्तारिकृताभिमन्युनिधनप्रोद्भूततीव्रक्रुधः पार्थस्याकृतशात्रवप्रतिकृतेरन्तश्शुचा मुख्यतः । कीर्णा बाष्पकणैः पतन्ति धनुषि ब्रीडाचला दृष्टयो हा वत्सेति गिरः स्फुरन्ति न पुनर्निर्यान्ति कण्ठादहिः ।।303।।