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द्वितीयो विलासः
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यहाँ प्रियवचन सुनने से उत्पन्न जड़ता अपलक देखने इत्यादि से व्यञ्जित होती है। प्रियदर्शनाद् यथा (गाथासप्तशत्याम् 1.17)
एहइ सो अप्पोसिओ अहं च कुप्येअ सो वि अणुसेज्ज । इह चिन्तेती बहुआ दद्रुण पिअंण किम्पि सम्मरइ ।।295।। (एष्यति स च प्रोषितोऽहं च सोऽप्यननेष्यति ।
इति चिन्तयन्ती वधूदृष्ट्वा प्रियं न किमपि संस्मरति।।) अत्र प्रियदर्शनजनितं जाड्यं पूर्वचिन्तितक्रियाविस्मरेण व्यज्यते। प्रियदर्शन से जड़ता जैसे (गाथासप्तशती १/१७ में)
परदेश गया हुआ प्रिय आएगा, तब मैं मान करूंगी और फिर वह मेरा मनावन करेगा।' हे सखि, इस प्रकार की मनोरथों की माला किसी धन्या ही के भाग में फलवती होती है।।295 ।।
यहाँ पहले सोचे गये कार्य को प्रियतम को देखने के कारण भूल जाने से जड़ता व्यक्त होती है।
अप्रियश्रवणाद् यथा
आपुच्छन्तस्स बहू गमिदुं दइअस्स सुणिअ अद्घोत्तिम् । अणुमण्णिदुं ण जाणइ णिवारे, अ परवसा उवह ।।296।। (आपृच्छमाणस्य वधूर्गन्तुं दयितस्य श्रुत्वाधोंक्तिम् ।
अनुमन्तुं न जानाति निवारयितुं च परवशा पश्यत |) अप्रिय श्रवण से जड़ता जैसे
जाने के लिए पूछने वाले प्रियतम की आधी बात को सुनकर वधू न तो अनुमोदन करना जानती है और रोकने के लिए परवश दिखलायी पड़ती है।।296।।
अनिष्टदर्शनाद् यथा ममैव
ससुरेण दज्जमाणे घरणिअडभवे निउज्जपुञ्जस्मि । सुण्हा ण सुणइ सुण्णा बहुमो कहिदं वि ससुराणं ।।297।। (श्वसुरेण दह्यमाने गृहनिकटभवे निकुञ्जपुछु ।
श्नुषा न शृणोति शून्या बहुश: कथितमपि श्वश्वा।।) अनिष्ट दर्शन से जड़ता जैसे शिभूपाल का ही
श्वसुर के द्वारा घर के समीप वाले लतागृह के जलाये जाने पर सास द्वारा अनेक प्रकार से कही गयी बात को शून्य पुत्रवधू नहीं सुनती है।।297।।
वियोगाद् यथा (अभिनन्दस्य रामचरिते १९.६१)
पप्रच्छ पृष्टमपि गद्गदिकार्तकण्ठः