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रसार्णवसुधाकरः
शुश्राव
नोक्तमपि शून्यमनः स किञ्चित् ।
सस्मार न स्मृतमपि क्षपामात्मकृत्यं श्रुत्वाहमित्युपगतोऽपि न संविवेद 11298 ।।
अत्र सीताविरहजनितं रामस्य जाड्यं पुनः प्रश्नश्रुत्यादिभिरवगम्यते ।
वियोग से जड़ता जैसे (अभिनन्द के रामचरित १९.६१ मे ) -
(सीता के विरह से उत्पन्न कष्ट) हकलाने वाले कण्ठ से युक्त (राम) ने पूछी गयी बात को फिर से पूछा, शून्य (जड़) मन हो जाने के कारण कहीं गयी बात को भी, कुछ नहीं सुना, अपने द्वारा किये गये कार्य को स्मरण करने पर भी तुरन्त स्मरण नहीं किया, 'मैं' इस शब्द को सुनकर भी अनुभूत (उद्बुद्ध) नहीं हुए ।।298।।
यहाँ सीता के विरह से उत्पन्न राम की जड़ता पुनः प्रश्न (फिर से पूछने) और सुनने इत्यादि से ज्ञात होती है।
अथ व्रीडा
अकार्यकारणावज्ञास्तुतिनूतनसङ्गमैः
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प्रतीकाराक्रियाद्यैश्च व्रीडा त्वनतिधृष्टता ।।६४।। तत्र चेष्टा निगूढोक्तिराधोमुख्यविचिन्तने । अनिर्गमो बहिः क्वापि दूरादेवावगुण्ठनम् ।। ६५।। नखनां कृन्तनं भूमिलेखनं चैवमादयः ।
(१८) व्रीडा - अकरणीय कार्य के करने, तिरस्कार, प्रशंसा (स्तुति), नवसङ्गम, प्रतीकार न कर पाने इत्यादि से अनिर्लज्जता व्रीडा कहलाती है। उसमें रहस्यमय कथन, अघोमुख होना, विचिन्तन, कहीं बाहर न निकलना, दूर से ही घूँघट निकालना, नखों का कुतरना, भूमि पर कुरेदना - ये चेष्टाएँ होती है ।। ६४-६६पू. ।।
अकार्यकरणाद् यथा (अनर्घराघवे २.५९)
गुर्वादेशादेव
निर्मीयमाणो
नाधर्माय स्त्रीवधोऽपि स्थितोऽयम् ।।
अद्य स्थित्वा श्वो गमिष्यद्भिरल्पैर्लज्जास्माभिर्मीलिताक्षैर्जितैव
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अकरणीय कार्य करने से व्रीडा जैसे (अनर्घराघव २.५ / ९ में ) -
गुरुदेव की आज्ञा से किये गये इस स्त्री वध में भी अधर्म तो होगा नहीं, रही लाज की
बात तो आज हम हैं कल चले जायेंगे, तब तक आँखे बन्द करके लज्जा को भी परास्त कर दे सकते हैं। 1299 ।।