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द्वितीयो विलासः
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है, वही है वही है, वही है इस प्रकार उसी के ध्यान में वशीभूत हुए मुझे न तो निद्रा आती है न रति होती है और न विरक्ति होती है (क्योंकि) मन चेतना से शून्य हो गया है। 287 ।।
अथ मृत्ति:
वायोर्धनञ्जयाख्यस्य विप्रयोगो य आत्मना ।।५४।।
शरीरवच्छेदवता मरणं नाम तद्भवेत् ।
१५. मृत्ति- धनञ्जय नामक वायु का आत्मा से वियोग होता है वह शरीर का विच्छेद मृत्ति (मरण) कहलाता है।।५४उ.-५५पू.॥
एतच्च द्विविधं प्रोक्तं व्याधिजं चाभिघातजम् ।।५५।।
मृत्ति के भेद- यह (मृत्ति) दो प्रकार की होती है- (१) व्याधिज और (२) अभिघातज।।५५उ.।।
आधं त्वसाध्यहच्छूलविषूच्यादिसमुद्भवम् । अमी तत्रानुभावाः स्युरव्यक्ताक्षरभाषणम् ।।५६।। विवर्णगात्रता मन्दश्वासादि स्तम्भमीलने ।
हिक्कापरिजनापेक्षानिश्चेष्टेन्द्रियादयः ॥५७।।
(१) व्याधिज मृत्ति- प्रथम (व्याधिज़ मृत्ति) असाध्य (जिसकी चिकित्सा न हो सके), हृदयपीड़ा, हैजा इत्यादि से उत्पन्न होती है। इसमें अस्पष्ट बोलना, शरीर में निष्प्रभता, मन्द श्वास इत्यादि, जड़ता, (आँखों का ) बन्द होना, हिचकी, परिजनों की अपेक्षा, इन्द्रियों में निश्चेष्टता इत्यादि ये अनुभाव होते हैं।॥५६-५७।।
यथा
काये सीदति कण्ठरोधिनि कफे कुण्ठे च वाणीपथे जिह्मायां दृशि जीविते जिगमिषौ श्वासे शनैः शाम्यति । आगत्य स्वयमेव नः करुणया कात्यायनीवल्लभः
कर्णे वर्णयताद् भवार्णवभयादुत्तारकं तारकम् ।।288।। जैसे
शरीर के शिथिल हो जाने पर, कफ से गला रूध जाने पर, वाणी के मार्ग के कुंठित हो जाने पर, नेत्रों के टेढ़े हो जाने पर जीवन के नियन्त्रित हो जाने पर, धीरे-धीरे श्वासों के शमित हो जाने पर, भवानीप्रिय (शङ्कर जी) स्वयं ही करुणापूर्वक आकर संसारसागर से पार करने वाले तारक मन्त्र को मेरे कानों में कहें।।288।। ।
द्वितीयं घातपतनदाहोदबन्यविषादिजम् । तत्र घातादिजे भूमिपतनाक्रन्दनादयः ।।५८।।