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प्रथमो विलासः
उसमें मुख का पीछे घुमाना, कृशता इत्यादि विक्रियाएँ होती है ।। ३०८॥ विषादेन यथा ( मालविकाग्निमित्रे ४/१६)
शरकाण्डपाण्डुगण्डस्थलीयमाभाति परिमिताभरणा । माधवपरिणतपत्रा कतिपयकुसुमेव कुन्दलता ।।217।।
विषाद से विवर्णता जैसे (मालकाविग्निमित्र ४. १६ में) -
इसका शरकाण्ड के समान पीतवर्ण कपोल, स्वल्पालङ्कारों से विभूषित शरीर ऐसा ज्ञात होता है मानो वसन्त ऋतु में पीले पत्तों वाली तथा कतिपय पुष्पों से युक्त कुन्दला हो।। 217 ।।
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आतपेन यथा (किरातार्जुनीये ६.३) - धूतानामभिमुखपातिभिः समीरैरायासादविशदलोचनोत्पलानाम् । आनिन्ये मदजनितां श्रियं वधूनामुष्णांशुद्युतिजनितः कपोलरागः ।। 218।।
आतप (धूप) से विवर्णता जैसे (किरातार्जुनीय ६. ३ में ) -
मार्ग में प्रतिकूल वायु से अप्सराओं के अङ्ग शिथिल हो गए थे। थक जाने के कारण उनके कमलनयन मुरझा गये थे और गालों की अरुणिमा भी मिट गयी थी । धूप व्याकुल होने के कारण उनके गाल पुनः लाल हो गये जिससे उनकी मदजनित शोभा फिर से वापस लौट आई ।। 218 ।।
रोषेण यथा ( मालविकाग्निमित्रे ४.१६) - कदा मुखं वरतनु कारणादृते
तवागतं क्षणमपि कोपपात्रताम् ।
अपर्वणि ग्रहकलुषेन्दुमण्डला
विभावरी कथय कथं भविष्यति ।। 219 ।।
रोष से विवर्णता जैसे ( मालविकाग्निमित्र ४.१६ में) -
अवसरशून्य अयोग्य स्थान में क्रोध करना तुम्हें शोभा नहीं देता । हे रमणीय गात्रि ! बिना कारण के तुमने कब क्रोध का प्रकाशन किया ? अर्थात् कदापि नहीं । पूर्णिमा के बिना ही राहु ग्रहण से चन्द्रमण्डल कलुषित हो जाय, ऐसी बात किस रात्रि में भला होती है ? ।।219 ।।
अथाश्रु
विषादरोषसन्तोषधूमाद्यैरश्रु तत्क्रियाः ।। बाष्पबिन्दुपरिक्षेपनेत्रसम्मार्जनादयः ।।३०९।।