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रसार्णवसुधाकरः
पिता सबाणवणमामर्श । निःश्वस्य निःश्वस्य मुहश्च दीर्घ
प्रसूः कराभ्यां भयकम्पिताभ्याम् ।।214।। हर्ष और भय से कम्पन जैसे
आनन्द के कारण जड़ीभूत भुजाओं के अग्रभाग से पिताजी ने बाण के घाव वाले उस अङ्ग का स्पर्श किया और बार-बार लम्बी श्वांस ले लेकर माताजी ने भय के कारण काँपती हुई अपनी भुजाओं से (स्पर्श किया)।।214।।
जरया यथा (कुवलयावल्याम् ३.१)
रुद्धानया बहुमुखी गतिरिन्द्रियाणां बद्धव गाढमनया जरयोपगूढः । अङ्गेन वेपथुमता जडतायुजाहं
गन्तुं पदादपि पदं गदितुं च नालम् ।।215।। बुढ़ापा से कम्पन जैसे (कुवलयावली ३.१ में)
मानो बुढ़ापा के साथ गूढ़ आलिङ्गन से युक्त (अर्थात् अत्यधिक वृद्ध हो गया हूँ) और इस (बुढ़ापा) के द्वारा मेरी इन्द्रियों की अनेक प्रकार वाली बहुमुखी अनेक विषयों की ओर दौड़ने वाली) गति अवरुद्ध हो गयी है (इसलिए) जड़ता से युक्त कांपते हुए अङ्ग के कारण मैं एक पग से दूसरे पग तक चलने में और कुछ कहने में समर्थ नहीं हूँ।।215 ।।
क्रोधेन यथा
रुषा समाध्मातमृगेन्द्रतुङ्गं न केवलं तस्य वपुश्चकम्पे । ससिन्धुभूभृद्गगनाच पृथ्वी
निपातितोल्का च सतारका द्यौः ।।216।। क्रोध से कम्पन जैसे
उसके क्रोध से युक्त केवल (उसका) सिंह के समान उन्नत शरीर ही नहीं काँपने लगा प्रत्युत समुद्र, पहाड़ और आकाश के साथ पूरी पृथ्वी तथा उल्कापात और तारों के सहित धुलोक (भी काँपने लगे)।।216।।
अथ वैवर्ण्यम्
विषादातपरोषाद्यैर्वैवर्ण्यमुपजायते ।
मुखवर्णपरावृत्तिकााद्यास्तत्र विक्रियाः ।।३०८।। ६. विवर्णता- विषाद, धूप, रोष इत्यादि के कारण विवर्णता उत्पन्न होती है।