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रसार्णवसुधाकरः
अपराध से स्वोत्था जैसे- - - -
अपने मित्र वायु के द्वारा चञ्चल की गयी गङ्गा की लहरों को व्याकुल पुतलियों (नेत्रों) से देख कर जड़ी-भूत बुद्धि वाले और मुख पर बनावटी प्रसनता को प्रकट करते हुए गडूगा के साथ नूतन मैत्री वाले तथा अन्तःपुर में प्रवेश करते हुए शिव की (उस समय की) नूतन दशा देवी (पार्वती) के सखियों में निकृष्टता को प्राप्त हुई।।260।।
चौर्येण स्वोत्था यथा
मृनन् क्षीरादिचौर्यान्मसृणसुरभिणी सृक्वणी पाणिघर्षराधायाघ्राय हस्तं सपदि परुषयन् किङ्किणीमेखलायाम् । वारं वारं विशालं दिशि दिशि विकिरंल्लोचने लोलतारे
मन्दं मन्दं जनन्याः परिसरमयते कूटगोपालबालः ।।261।। चोरी से स्वोत्था जैसे
दुग्ध इत्यादि चुराने के कारण (अपने) स्निग्ध (गीले और सुगन्धित) मुख के किनारे को हाथों के घर्षण से पोछते हुए, हाथ को पकड़कर और सूंघकर करधनी में लगे छोटे-छोटे घुघरुओं को कठोर बनाते हुए, बार-बार प्रत्येक दिशाओं में चञ्चल पुतलियों वाली आँखों को डालते हुए (चारों ओर देखते हुए) धोखा देने वाले (चोरी के अपराध को छिपाने की इच्छा वाले) बालक गोपाल (श्री कृष्ण) धीरे-धीरे माता (यशोदा) के समीप आते हैं।।261 ।।
परोत्था तु निजस्यैव परस्याकार्यतो भवेत् ।।
प्रायेणाकारचेष्टाभ्यां तामिमामनुभावयेत् ।।२९।।
परोत्था शङ्का- परोत्था शङ्का अपने अथवा दूसरे के अकार्य से उत्पन्न होती है। उस परोत्था शङ्का को बहुधा, आकार और चेष्टा के द्वारा समझ लेना चाहिए।।२९॥
आकारः सात्विकश्चेष्टा त्वङ्गप्रत्यङ्गजा क्रियाः । आकार का अर्थ है- अङ्ग- प्रत्यङ्गों से उत्पन्न क्रियाओं वाली सात्त्विक चेष्टा। अपराधात्परोत्था यथा (अनर्घराघवे ४-९)
प्रीते पुरा पुररिपौ परिभूय मान् वब्रेऽन्यतो यदभयं स भवानहंयुः । तन्मर्मणि स्पृशति मामतिमात्रमद्य
हा वत्स! शान्तमथवा दशकन्धरोऽसि ।।262 ।। अपराध से परोत्था जैसे (अनर्घराघव ४-९ में)
(ब्रह्मा के) प्रसन्न होने पर मयों के प्रति आस्था नहीं रखने वाले उस अहङ्कारी रावण ने जो मत्र्येतर जन से अभय याचना की वह बात आज हमारे हृदय में चुभ रही है, अथवा जाने दो इस बात को, क्योंकि तुम रावण हो।।262।।