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द्वितीयो विलासः
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अथ प्रियश्रवणात्
प्रियश्रवणजे त्यस्मिन्नभ्युत्थानोपगृहने ।।३९।।
प्रीतिदानं प्रियं वाक्यं रोमहर्षादयोऽपि च ।
(६) प्रियश्रवण से आवेग- इस प्रियश्रवण से उत्पन्न आवेग में सत्कार के लिए उठना, आलिङ्गन, प्रेमप्रदर्शन, प्रियकथन, रोमाञ्च इत्यादि चेष्टाएँ होती है।३९उ.-४०पू.॥
यथा (रघुवंशे (३/१६)
जनाय शुद्धान्तचराय शंसते कुमारजन्मामृतसम्मिताक्षरम् । अदेयमासीत् त्रयमेव भूपतेः
शशिप्रभं छत्रमुभे च चामरे ।।276।। जैसे (रघुवंश ३/१६ में)
राजा दिलीप के लिए 'राजकुमार का जन्म हुआ' ऐसा अमृत के समान कहने वाले रनिवास के परिचारकों के लिए, चन्द्रिका के समान प्रभा वाले छत्र और दो राजचिह्न चामर ये तीन ही वस्तु न देने योग्य थी।।276 ।।
श्रवणं प्रियदर्शनस्याप्युपलक्षणम् । तेन यथा (शिशुपालवधे १३/७)
अवलोक एव नृपतेः स्म दूरतो रभसाद् रथावतरीमिच्छतः ।
अवतीर्णवान् प्रथममात्मना हरिविनयं विशेषयति सम्भ्रमेण सः ।।277 ।। यहाँ श्रवण प्रिय के दर्शन का भी उपलक्षण है। जैसे (शिशुपालवधे १३/७)
रथ से उतरने की इच्छा करते हुए राजा (युधिष्ठिर को) दूर से ही देखने पर हर्ष से भगवान् (कृष्ण), उनके (उतरने से) पहले ही (रथ से) उतर गये। इस प्रकार उस (कृष्ण) ने शीघ्रता (से उतरने) के कारण (अपने) विनयशीलता को विशिष्ट (उत्कृष्ट) बना दिया।।277।।
अथाप्रियश्नुते:
अप्रियश्रुतिजेऽप्यस्मिन् विलापः परिवर्तनम् ।। ४०।।
आक्रन्दनं भूपतनं परितो भ्रमणादयः ।
(७) अप्रिय श्रवण से आवेग- इस अप्रिय श्रवण से उत्पन्न आवेग में विलाप, परिवर्तन, रोना, जमीन पर गिरना, इधर-उधर घूमना इत्यादि चेष्टाएँ होती हैं।।४०उ.४१पू.॥