________________
[१६०]
रसार्णवसुधाकरः ।
जैसे (धनञ्जयविजय ६१ में)
गंगापुत्र (भीष्म) के द्वारा प्रयुक्त तथा बढ़ी हुई अग्नि वाले अस्त्र के वैभव से उत्पन्न प्रौढ़ (प्रवृद्ध) अग्नि दूर भागते हुए आकाशचारी (प्राणियों) के समूह को अपनी ऊँची ज्वालाओं से समूल विनष्ट करता हुआ तथा अनियमित अश्वों के समूह के घूमने के मार्ग में नियमन के लिए सूर्य के सारथी (अरुण) को व्याकुल करता हुआ और प्रलय की आशंका को उत्पन्न करता हुआ आकाशवीथी (आकाशमार्ग) को चाट (विनष्ट कर) रहा है।।273 ।।
अथ कुञ्जरावेगः
आवेगे कुञ्जरोद्भूते सत्वरं चापसर्पणम् ।।३८।।
विलोकनं मुहुः पश्चात् त्रासकम्पादयो मताः ।
(५) कुञ्जरावेग - कुञ्जर से उत्पन्न आवेग में शीघ्रता से भागना, बार-बार पीछे देखना, भय से काँपना इत्यादि चेष्टाएँ कही गयी हैं॥३८उ.-३९पू.॥
यथा (शिशुपालवधे ३.६७)__ निरन्तरालेऽपि विमुच्यमाने दूरं पथि प्राणभृतां गणेन ।
तेजोमहद्भिस्तमसेव दीपैर्द्विपैरसम्बाधमयाम्बभूव ।।274।। जैसे (शिशुपालवध ३/६७ में)
सघन अन्धकार होने पर भी जैसे दीपक सामने आने पर अन्धकार दूर होकर मार्ग साफ हो जाता है इसी प्रकार प्राणिसमूह से मार्ग अत्यधिक भरा रहने पर भी विशाल हाथियों के आने पर लोग डरकर मार्ग छोड़ देते थे जिससे हाथी सुखपूर्वक आगे चले जाते थे।।274।।
अत्र कुञ्जरग्रहणमश्चादीनामुपलक्षणम् । यहाँ कुञ्जर का ग्रहण अश्वादियों का भी द्योतक है। अश्वेन यथा (शिशुपालवधे ५/५९)
उत्पाट्य दर्पचलितेन सहैव रज्ज्वा कीलं प्रयत्नपरमानवदुर्ग्रहेण । आकुल्यकारि कटकस्तुरगेण तूर्ण
मश्वेति विद्रुतमनुद्रवताश्वमन्यम् ।।275।। अश्व से आवेग जैसे (शिशुपालवध ५/५९ में)
अभिमान से उछले हुए (अत एव) रस्सी (अगाड़ी-पिछाड़ी) के साथ ही खूटे को उखाड़कर, शीघ्र भागते हुए दूसरे घोड़े के पीछे '(यह) घोड़ी है' ऐसा समझ कर दौड़ते हुए (अत एव पकड़ने के लिए) प्रयत्नशील लोगों से कठिनता से पकड़े जाने योग्य घोड़े ने शिविर को व्याकुल कर दिया।।275 ।।