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द्वितीयो विलासः
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(११) उन्माद- वियोग से अथवा इष्ट जन के विनाश से चित्त का उतावला हो जाना उन्माद कहलाता है।।४३पू.।।
वियोगात्
वियोगजे तु चेष्टा स्युर्धावनं परिदेवनम् ।।४३।। असम्बद्धप्रलपनं शयनं सहसोस्थितिः ।
अचेतनैः सहालापो निर्निमित्तस्मितादयः ।।४४।। वियोग से उन्माद- वियोग से उत्पन्न उन्माद में दौड़ना, विलाप (विलखना), अर्थहीन प्रलाप, शयन, सहसा ऊपर उठना, (वृक्षादि) अचेतनों के साथ आलाप, बिना कारण मुस्कराना इत्यादि चेष्टाएँ होती हैं।।४३उ.-४४।।
यथा
आशूत्थानं सदृशगणना चेतनाचेतनेषु प्रौढोष्मार्चिः श्वसितमसकृन्निर्गतो बाष्पपूरः । निर्लक्ष्या वाग् गतिरविषया निर्निमित्तं स्मितं च
प्रायेणास्याः प्रथयतितरां भ्रान्तिधात्रीमवस्थाम् ।।280।। जैसे
शीघ्रता से उठना, चेतन और अचेतन को समान समझना, बढ़े हुए ताप की ज्वाला वाली निःश्वास, बार-बार निकलने वाले आँसू की बाढ़, अर्थहीन वाणी, निर्लक्ष्य गति और बिना कारण मुस्कराना प्रायेण इस (रमणी) की उद्विग्न दशा को अत्यधिक बढ़ा रहा है।।280।।
इष्टनाशात्
इष्टनाशकृते त्वस्मिन् भस्मादिपरिलेपनम् । नृत्तगीतादिरचना तृणनिर्माल्यधारणम् ।। ४५।।
चीवरावरणादीनि प्रागुक्ताश्चापि विक्रियाः ।
इष्ट नाश से उन्माद- इष्ट के नाश से उत्पन इस (उन्माद) में भस्म इत्यादि का लगाना, नृत्त-गीत इत्यादि की रचना करना, तृण और मुरझाएँ फूल को धारण करना, चीवर पहनना इत्यादि तथा पहले (वियोगजन्य उन्माद में) कहीं गयी चेष्टाएँ होती है।।४५-४६पू.॥
यथा करुणाकन्दले
कीनाशोऽपि विभेति यादवकुलात् वृद्धस्य का मे गतिर्भेदः स्यात् स्वजनेषु किन्नु शतधा सीदन्ति गात्राणि मे । सोऽयं बुद्धिविपर्ययो मम समं सर्वे हताः बान्धवा न श्रद्धेयमिदं हि वाक्यमहहा मुत्यन्ति मर्माणि मे ।।281 ।।
रसा.१४