SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 214
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ द्वितीयो विलासः [१६३] (११) उन्माद- वियोग से अथवा इष्ट जन के विनाश से चित्त का उतावला हो जाना उन्माद कहलाता है।।४३पू.।। वियोगात् वियोगजे तु चेष्टा स्युर्धावनं परिदेवनम् ।।४३।। असम्बद्धप्रलपनं शयनं सहसोस्थितिः । अचेतनैः सहालापो निर्निमित्तस्मितादयः ।।४४।। वियोग से उन्माद- वियोग से उत्पन्न उन्माद में दौड़ना, विलाप (विलखना), अर्थहीन प्रलाप, शयन, सहसा ऊपर उठना, (वृक्षादि) अचेतनों के साथ आलाप, बिना कारण मुस्कराना इत्यादि चेष्टाएँ होती हैं।।४३उ.-४४।। यथा आशूत्थानं सदृशगणना चेतनाचेतनेषु प्रौढोष्मार्चिः श्वसितमसकृन्निर्गतो बाष्पपूरः । निर्लक्ष्या वाग् गतिरविषया निर्निमित्तं स्मितं च प्रायेणास्याः प्रथयतितरां भ्रान्तिधात्रीमवस्थाम् ।।280।। जैसे शीघ्रता से उठना, चेतन और अचेतन को समान समझना, बढ़े हुए ताप की ज्वाला वाली निःश्वास, बार-बार निकलने वाले आँसू की बाढ़, अर्थहीन वाणी, निर्लक्ष्य गति और बिना कारण मुस्कराना प्रायेण इस (रमणी) की उद्विग्न दशा को अत्यधिक बढ़ा रहा है।।280।। इष्टनाशात् इष्टनाशकृते त्वस्मिन् भस्मादिपरिलेपनम् । नृत्तगीतादिरचना तृणनिर्माल्यधारणम् ।। ४५।। चीवरावरणादीनि प्रागुक्ताश्चापि विक्रियाः । इष्ट नाश से उन्माद- इष्ट के नाश से उत्पन इस (उन्माद) में भस्म इत्यादि का लगाना, नृत्त-गीत इत्यादि की रचना करना, तृण और मुरझाएँ फूल को धारण करना, चीवर पहनना इत्यादि तथा पहले (वियोगजन्य उन्माद में) कहीं गयी चेष्टाएँ होती है।।४५-४६पू.॥ यथा करुणाकन्दले कीनाशोऽपि विभेति यादवकुलात् वृद्धस्य का मे गतिर्भेदः स्यात् स्वजनेषु किन्नु शतधा सीदन्ति गात्राणि मे । सोऽयं बुद्धिविपर्ययो मम समं सर्वे हताः बान्धवा न श्रद्धेयमिदं हि वाक्यमहहा मुत्यन्ति मर्माणि मे ।।281 ।। रसा.१४
SR No.023110
Book TitleRasarnavsudhakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJamuna Pathak
PublisherChaukhambha Sanskrit Series
Publication Year2004
Total Pages534
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size31 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy