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द्वितीयो विलासः अथ व्यभिचारिभावाः-..
व्यभी इत्युपसर्गों द्वौ विशेषाभिमुखत्वयोः । विशेषणाभिमुख्येन चरन्ति स्थायिनं प्रति ।।१।। वागङ्गसत्त्वयुक्ता ये ज्ञेयास्ते व्यभिचारिणः ।। सञ्चारयन्ति भावस्य गति सञ्चारिणोऽपि ते ।।२।। उन्मज्जन्तो निमज्जतः स्थायिविन्याम्बुनिधाविव ।
ऊर्मिवद् वर्धयन्त्येनं यान्ति तद्रूपतां च ते ।।३।।
व्याभिचारी भाव- विशेष रूप अभिमुखता अर्थ वाले वि और अभि ये दो उपसर्ग हैं। जो वाणी (कथन), अङ्ग और सत्त्व से युक्त होकर स्थायी भाव के प्रति विशेष रूप से. अभिमुख होते हैं वे व्यभिचारी (भाव) कहे जाते हैं।
सञ्चारी शब्द की व्युत्पति- ये भाव की गति को सञ्चारित करते हैं, इसलिए ये सञ्चारी भाव भी कहलाते हैं।
(सञ्चारी भाव) स्थायी भाव में प्रकट तथा विलीन होकर उसी प्रकार स्थायी भाव को बढ़ाते हैं तथा (पुन:) तद्रूपता को प्राप्त हो जाते हैं जैसे समुद्र में तरङ्गे।
अर्थात् जिस प्रकार समुद्र के होने पर ही तरङ्गे उत्पन्न होती हैं और विलीन होती है उसी प्रकार रति आदि स्थायी भाव के होने पर ही उसको लक्ष्य करके (उनके पोषण के लिए) जिनका आविर्भाव और तिरोभाव हुआ करता है, वे सञ्चारी भाव कहलाते हैं।।१-३॥
निर्वेदोऽथ विषादो दैन्यं ग्लानिंश्रमौ च मदगवौं । शङ्कात्रासावेगा उन्मादापस्मृती तथा व्याधिः ।।४।। मोहो मृतिरालस्यं जाड्यं ब्रीडावहित्था च । स्मृतिरथ वितर्क चिन्तामतिधृतयो हर्ष उत्सुकत्वं च ।।५।।
औग्यममर्षासूयाश्चापल्यं चैव निद्रा च ।
सुप्तिर्बोध इतीमे ख्याता व्यभिचारिणत्रयत्रिंशत् ।।६।।
व्यभिचारी भावों की संख्या- तैंतीस व्यभिचारी भाव कहे गये हैं, जो ये हैं(१) निवेद (२) विषाद (३) दीनता (४) ग्लानि (५) श्रम (६) मद (७) गर्व (८) शङ्का (९) त्रास (१०) आवेग (११) उन्माद (१२) अपस्मृति (१३) व्याधि (१४) मोह (१५)