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रसार्णवसुधाकरः
आपत्ति से (निर्वेद) जैसे (रघुवंश ८.५१ में )
(मरी हुई इन्दुमती के प्रति अज कहते है-) सुरत के परिश्रम से उत्पन्न पसीने की बूंदे तुम्हारे मुख पर अभी भी मौजूद हैं पर तुम चल बसी, देहधारियों की इस निःसारता को धिक्कार है।।228।।
विप्रयोगाद् यथा (उत्तररामचरिते २.२९)
यस्यां ते दिवसास्तया सह मया नीता यथा स्वे गृहे यत्सम्बद्धकथाभिरेव नियतं दीर्घाभिरस्थीयत । एकः सम्प्रति नाशितप्रियतमस्तास्तामेव पापः कथं
रामः पञ्चवटीं विलोकयतु वा गच्छत्वसम्भाव्य वा ।।229 ।। अत्र सीताविप्रयुक्तस्य रामस्य वागारम्भसूचितेनावमानेन निर्वेदः प्रतीयते। वियोग से (निर्वेद) जैसे (उत्तररामचरित १.२८ में)
(सीता निर्वासन के पश्चात् पञ्चवटी को देख कर राम कहते हैं)- जिस पञ्चवटी में मैंने उस (सीता) के साथ अपने घर की तरह उन दिनों को बिताया। निरन्तर जिस पञ्चवटी -विषयक बड़ी-बड़ी कथाओं से ही हम अयोध्या में रहते थे। इस समय प्रियतमा (सीता) को नष्ट करने वाला, अत एव अकेला पापी राम, उसी पञ्चवटी को कैसे देखे? अथवा उसका अनादर करके कैसे जाए?।। 229 ।।
___ यहाँ सीता के वियोग का राम की वाणी द्वारा सूचित तिरस्कार के कारण निर्वेद प्रतीत होता है।
ईर्ष्णया यथा (यथानघराघवे ४/४४)
कुर्युः शस्त्रकथाममी यदि मनोवंशे मनुष्याङ्कराः स्याच्चेद् ब्रह्मगणोऽयमाकृतिगणस्तत्रेष्यते चेद्भवान् । सम्राजां समिधां च साधकतमं धत्ते छिदाकारणं धिङ् मौर्वीकुशकर्षणोल्बणकिणग्रन्थिर्ममायं करः ।।230।।
अत्र रामचन्द्रशतानन्दविषयेाजनितेन घिगिति वागारम्भसूचितेन स्वात्मावमाने जामदग्नस्य निर्वेदः।
ईर्ष्या से निर्वेद जैसे (अनर्घराघव ४/४४ में)
(नेपथ्य में परशुराम कहते हैं-) यदि मनुष्य के अङ्कर (शिशु) शस्त्र की बातें करने लगे और यदि ब्राह्मण को आकृतिगण मानकर तुम्हारा भी उसी में समावेश कर दिया जाय, तब राजाओं तथा समिधाओं को समान भाव से काटने वाले इस कुठार को धनुष की प्रत्यञ्चा (डोरी) के द्वारा घर्षण से उत्पन्न व्रण (घाव) के चिह्न वाला हमारा हाथ व्यर्थ धारण करता है, इसे धिक्कार है।।230।।।
यहाँ रामचन्द्र और शतानन्द विषयक ईष्या से उत्पन्न धिक्कार है' इस कथन से सूचित अपने कुठार-धारण की निष्फलता में परशुराम का निर्वेद है।