________________
द्वितीयो विलासः
[ १३९]
मृति (१६) आलस्य (१७) जड़ता (१८) व्रीडा (१९) अवहित्था (२०) स्मृति (२१) वितर्क (२२) चिन्ता (२३) मति (२४) धृति (२५) हर्ष (२६) उत्सुकता (२७) उग्रता (२८) अमर्ष (२९) असूया (३०) चपलता (३१) निद्रा (३२) सुप्ति (३३) बोध ॥४-६॥
तत्र निर्वेदः
तत्त्वज्ञानाच्च दौर्गत्यादापदो विप्रयोगतः ।
ईदिरपि नैष्फल्यमतिर्निवेद उच्यते ।।७।।
(१) निर्वेद- तत्व-ज्ञान' दुर्गति आपत्ति वियोग ईर्ष्या इत्यादि से मति का निरर्थक (निष्फल) होना निर्वेद कहलाता है॥७॥
तत्र तत्त्वज्ञानाद् यथा (वैराग्यशतके-७१)
प्राप्ता श्रियः सकलकामदुधास्ततः किं न्यस्तं पदं शिरसि विद्विषतां ततः किम् । सम्मानिता प्रणयिनो विभवैस्ततः किं
कल्पं स्थिता तनुभृता तनुभिस्ततः किम् ।।226।। तत्त्वज्ञान से (निर्वेद) जैसे (वैराग्यशतक ७१ में)
सकल मनोरथ प्रदान करने वाली सम्पदाएँ प्राप्त कर ली तो क्या? शत्रुओं के सिर पर पैर रख दिया तो क्या? मित्र आदि प्रियजनों को धन सम्पत्ति से तृप्त कर दिया तो क्या? शरीरधारियों के शरीर कल्प-पर्यन्त स्थित रहे तो क्या ? ।।226।।
दौर्गत्याद् यथा
किं विद्यासु विशारदैरपि सुतैः प्राप्ताधिकप्रश्रयैः किं दारैरनुरूपचरितैरात्मानुकूलैरपि । किं कार्य चिरजीवितेन विगतव्याधिप्रचारेण वा
दारिद्र्योपहतं यदेतदखिलं दुःखाय मे केवलम् ।।227 ।। दुर्गति से निर्वेद जैसे
विद्या में विज्ञ (निपुण) तथा अधिक सम्मान-प्राप्त पुत्र से, अपने अनुरूप आचरण करने वाली तथा अनुकूल पत्नी से और रोग से रहित बहुत समय तक जीवित रहने से क्या लाभ? जब कि दरिद्रता से युक्त यह (पुत्रादि) सभी केवल मेरे दुःख के लिए (कारण) ही हैं।। 227 ।।
आपदो यथा (रघुवंशे ८.५८)
सुरतश्रमसम्भृतो मुखे घ्रियते स्वेदलवोद्गमोऽपि ते । अथ चास्तमिता त्वमात्मना धिगिमां देहभृतामसारताम् ।।228 ।।