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रसार्णवसुधाकरः
अस्यास्तु चेष्टाः सम्पर्कमनोरथविचिन्तनम् । सखीविनोदो हल्लेखो मुहुर्दूतीनिरीक्षणम् ।।१२७।।
प्रियाभिगमनमार्गाभिवीक्षा-प्रभृतयो मताः । यथा ममैव
केलिगेहं ललितशयनं भूषितं चात्मदेहं दर्श-दर्श दयितपदवीं सादरं वीक्षमाणा । मानक्रीडां मनसि विविधां भाविनी कल्पयन्ती
सारङ्गाक्षी रणरणिकया निःश्वसन्ती समास्ते ।।61 ।।
(२) वासकसज्जिका- भरत आदि आचार्यों ने स्त्रियों की वासक सीमा को निर्धारित किया है- जो (दूर गये) प्रियतम को घर आने पर घर में जाती हैं और अपने को (प्रसाधन द्वारा) सजाती हैं, वे वासकसज्जिका होती है। सम्भोग की अभिलाषा का चिन्तन, सखियों के साथ मनोरञ्जन, प्रेमपत्र लिखना, बार-बार दूती की ओर देखना, प्रियतम के आने के रास्ते को देखना इत्यादि इसकी चेष्टाएँ कही गयी हैं।।१२५उ.-१२८पू.।।
जैसे शिङ्गभूपाल का ही
(नायिका ने अपने) क्रीडागृह, मनोहर शय्या और अपने शरीर को सजा लिया। प्रियतम के आने वाले मार्ग को बार-बार देखती हुई और अपने मन में होने वाली अनेक मान (विषयक) क्रीड़ाओं की कल्पना करती हुई वह मृगनयनी (होने वाले सुरतरूपी) युद्ध की झनझनाहट से लम्बी-लम्बी साँसे भरती हुई आश्वस्त हुई।।61।।
अथ विरहोत्कण्ठिता
अनागसि प्रियतमे चिरयत्युत्सुका तु या ।।१२८।। विरहोत्कण्ठिता भाववेदिभिः सा समीरिता । अस्यास्तु चेष्टा हृत्तापो वेपथुश्चाङ्गसादनम् ।।१२९।।
अरतिर्वाष्यमोक्षश्च स्वावस्थाकथनादयः । यथा ममैव
चिरयति मनाक् कान्ते कान्ता निरागसि सोत्सुका मधुमलयजं माकन्दं वा निरीक्षितुमक्षमा । गलितपतितं नो जानीते करादपि कङ्कणं
परभृतरुतं श्रुत्वा बाष्पं विमुञ्चति वेपते ।।62।।
(३) विरहोत्कण्ठिता- (परस्त्री-सम्भोग के) अपराध से रहित प्रियतम के आने में देर होने पर जो उत्कण्ठित हो जाती है, उसको भावविज्ञ (आचार्य) विरहोत्कण्ठिता कहते हैं।