________________
रसार्णवसुधाकरः
द्वितीय (अप्रत्याशित सम्भोगविच्छेद जैसे रत्नावली २.१) में
(राजा विदूषक से कहता है ) — जैसे-तैसे दैवयोग से प्राप्त अनुराग को प्रकट करने वाली (पक्ष में- रङ्ग फैलाने वाली ) प्रिया (कान्तिमती) वह (सागरिका) रत्नावली-सी गले में पड़ने से पूर्व (गले लगने से पूर्व ) आपही द्वारा मेरे हाथ से दूर कर दी ( गिरा दी गयी । । 188 ।। यहाँ विदूषक के राजा द्वारा पूछे जाने पर कि वासवदत्ता कहाँ है ? 'अरे! नहीं मालूम कहाँ है ? मैने तो यह दूसरी 'वासवदत्ता' अत्यधिक क्रोध के कारण कह दियावाक्य द्वारा सूचित देवी ( वासवदत्ता) के आने की शङ्का से छोड़ दिये गये सागरिका के कारण राजा का यह कहना कि एकाएक तुमने (मेरा सागरिका के साथ) सम्भोग का विच्छेद करा दिया नर्मस्फोट है।
| ११६ ]
अथ नर्मगर्भ
नेतुर्वा नायिकाया वा व्यापारः स्वार्थसिद्धये ।। २७८ ।। प्रच्छादनपरो यस्तु नर्मगर्भः स कीर्तितः ।
४. नर्मगर्भ - अपने कार्य की सिद्धि के लिए प्रच्छन्न (छिपे ) रूप से नायक अथवा नायिका का जो व्यापार (कार्य) होता है, वह नर्मगर्भ कहलाता है ।। २७८उ. - २७९पू.)
यथा
श्रियो मानग्लानेरनुशयविकल्पैः स्मितमुखे सखीवर्गे गूढं कृतवसतिरुत्थाय सहसा । समानेष्ये धूर्त्तं तमहमिति जल्पन् नतमुखीं
प्रियां तामालिङ्गन् हरिररतिखेदं हरतु वः ।।189।।
अत्र कुपितायाः श्रियः प्रसादनार्थं सखीमध्ये पुरुषोत्तमेन प्रच्छन्नस्थित्यादिरूपो व्यापारः कृत इत्ययं नर्मगर्भः ।
जैसे
लक्ष्मी के मान की ग्लानि की अधिकता से उत्पन्न होने के कारण मुस्कराने वाली सखियों के समूह में छिपकर बैठे हुए (विष्णु) के अकस्मात् उठा कर तथा 'उस धूर्त को मैं यहाँ ले आऊँगी' कहती हुई नतमुखी प्रिया (लक्ष्मी) का आलिङ्गन करते हुए भगवान् (हरि) तुम लोगों के सम्भोग से रहित खेद को दूर करें ।। 189 ।।
यहाँ कुपित लक्ष्मी को प्रसन्न करने के लिए सखियों के बीच में पुरुषोत्तम (विष्णु) द्वारा प्रच्छन्नस्थिति इत्यादि रूप व्यापार किया गया— यह नर्मगर्भ है।
पूर्वस्थितो विपद्येत नायको यत्र वा परतिष्ठेत् ।। २७९ ।। तमपीह नर्मगर्भं प्रवदति भरतो हि नाट्यवेदगुरुः ।
नाट्य वेद के गुरु आचार्य भरत पूर्वस्थित नायक के विपत्ति में पड़ने पर ( मर जाने पर)