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रसार्णवसुधाकरः
(अ) भाषा के भेद- भाषा सात प्रकार की होती है- प्राच्या, अवन्त्या, मागधी, बाल्हिका, दक्षिणात्या, शौरसेनी और मालवी।।२९५।।
सप्तधा स्याद् विभाषापि शबरद्रमिडान्ध्रजाः ।
शकाराभीरचण्डालवनेचरभवा इति ।। २९६।।
(आ) विभाषा के भेद-विभाषा भी सात प्रकार की होती है- शबर, द्रमिल, आन्ध्री, शकारी, आभीर, चाण्डाल और वनेचरी।।२९६।।
भाषा विभाषाः सन्त्यन्यास्तत्तद्देशजनोचिताः । तासामनुपयोगित्वान्नात्र लक्षणमिष्यते ।। २९७।।
तत्तद्देशोचिता वेषाः क्रियाश्चातिस्फुटान्तरा ।
इनके अतिरिक्त अन्य भी तत्तत् स्थान-विशेष में बोली जाने वाली भाषाएँ और विभाषाएँ है। उनकी उपयोगिता न होने के कारण उनका यहाँ लक्षण नहीं कहा जा रहा है।।२९७||
तत्तत् स्थान के यथोचित वेष और क्रियाओं में तो अन्तर स्पष्ट है।।२९८पू.।। अथ सात्त्विका:
अन्येषां सुखदुःखादिभावनाकृत भावनम् ।। २९८।। आनुकूल्येन यच्चित्तं भावकानां प्रवर्तते । सत्वं तदिति विज्ञेयं प्राज्ञैः सत्त्वोद्भवानिमान् ।। २९९।। सात्विका इति जानन्ति भरतादिमहर्षयः । सर्वेषामपि भावानां यैः सत्त्वं परिभाव्यते ।।३०० ।।
ते भावा भावतत्त्वज्ञैः सत्त्विकाः समुदीरिताः ।
सात्त्विक भाव- दूसरों के सुख और दुःख इत्यादि की भावना से किया गया भाव जो अनुकूलता से भावक के चित्त को प्रवर्तित (भावित करता है) वह सत्त्व कहलाता है। सत्त्व से उत्पन्न उस भाव को भरत इत्यादि महर्षि सात्त्विक भाव समझते हैं। जिनके द्वारा सभी भावों का सत्त्व सम्यक् रूप से प्रकट होता है, वे भाव भावतत्त्वज्ञों द्वारा सात्त्विक भाव कहे गये हैं।।२९८उ.-३०१पू.।।
ते स्तम्भस्वेदरोमाञ्चः स्वरभेदश्चवेपथुः ।। ३०१।।
वैवर्ण्यमथुप्रलयावित्यष्टौ परिकीर्तिताः ।
आठ सात्त्विक भाव- १.स्तम्भ, २.स्वेद, ३.रोमाञ्च, ४.स्वरभेद, ५.वेपथु (कम्पन), ६.वैवर्ण्य, ७.अश्रु और ८.प्रलय (चेतना विहीनता)- ये आठ सात्त्विक भाव कहे गये हैं।।३०१उ.-३०२पू.।।