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प्रथमो विलासः
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नापि द्वितीयः। वैषम्येण वृत्तिगुणानां मिश्रणे यत्र यवृत्तिप्रत्यभिज्ञाहेतुभूता बहवो गुणा लक्ष्यन्ते, तत्र सैव वृत्तिरिति निश्चयात्। ननु तत्र प्रकरणादिवशेनरसविशेषव्यक्तिरिति चेत्, तर्हि प्रस्तुतरसानुरोधेनैव वृत्तिविशेषनिर्धारणमप्यङ्गीकर्तव्यमेव।
तथा च भरतः (नाट्यशास्त्र)
किन्तु (शृङ्गारप्रकाश के कर्ता का) यह विचार सहन करने (मानने) योग्य नहीं है क्योंकि इन वृत्तियों के धर्मों का मिश्रण १. समान रूप से बराबर बराबर होगा या २. न्यूनाधिक भाव से। इनमें से बराबर-बराबर मिश्रण का अभाव होने से प्रथम (समानरूप से मिश्रण की) बात प्राप्त नहीं हो सकती क्योंकि वृत्तियों का रस-विशेष में प्रयोग के नियम का कथन हुआ है और मिश्र वृत्तियों से व्यञ्जित होने वाला रस भी न्यूनाधिक्य भाव से मिश्रित होकर प्राप्त होता है। शङ्का- यहाँ यह प्रश्न हो सकता कि मिश्रा वृत्ति सभी (रसों) में सामान्य रूप से प्रयुक्त होती है अत: समान मिश्रण हो सकता है। (समाधान)- ऐसी बात नहीं है। भारती इत्यादि वृत्तियों का (रस विशेष से) नियमित होने के कारण मिश्रावृत्ति का सभी रसों में सामान्य रूप से प्रयुक्त होने का कथन मूलप्रमाण के अभाव होने से स्वोक्तिमात्र (केवल अपना कथन) हो सकता है। (न्यूनाधिकभाव से वृत्तियों के मिश्रण की) द्वितीय बात भी नहीं हो सकती क्योंकि न्यूनाधिक्य की विषमता से वृत्ति के गुणों के मिश्रण में जिस वृत्ति का अभिज्ञान के हेतुभूत अनेक गुण दिखलायी पड़ते हैं, वहाँ वहीं वृत्ति निश्चित होती है। (शङ्का) यदि वहाँ प्रकरणवश रस-विशेष की अभिव्यक्ति हो तो (वहाँ क्या करना चाहिए)। (समाधान) वहाँ विशेष निर्धारण को स्वीकार कर लेना चाहिए। जैसा कि भरत ने कहा है
भावो वापि रसो वापि प्रवृत्तिवृत्तिरेव वा । सर्वेषां समवेतानां यस्य रूपं भवेद् बहु ।।
स मन्तव्यो रस: स्थायी शेषा सञ्चारिणो मताः ।।इति।।
"भाव, रस, प्रवृत्ति अथवा वृत्ति, इन सभी के इकट्ठा होने पर जिसके अनेक रूप हो जाते हैं, उसे स्थायी रस मानना चाहिए। इससे अन्य शेष सभी भाव सञ्चारीभाव कहे गये हैं।"
एतच्च शृङ्गारग्रहणं तज्जन्यानां हास्यादीनामुपलक्षणार्थम्। अतश्च शृङ्गारहास्ययोः कैशिकी वीराद्भुतयोः सात्त्वती। रौद्रबीभत्सभयानकानां चारभटीति नियमः प्रतीयते।
शृङ्गार इत्यादि का ग्रहण उस (शृङ्गार) से उत्पन्न हास्य इत्यादि का उपलक्षण (द्योतित करने वाला) है। अतः शृङ्गार और हास्य रस में कैशिकी, वीर और अद्भुत रस में सात्त्वती तथा रौद्र, बीभत्स और भयानक रस में आरभटी वृत्ति के होने का नियम प्रतीत होता है।
तथा च भरतः (नाट्यशास्त्र (२०.७३,७४))
शृङ्गारं चैव हास्यं च वृत्ति: स्यात्कैशिकी श्रिता । सात्वती नाम विज्ञेया रौद्रवीराद्भुताश्रया ।