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रसार्णवसुधाकरः
विभ्यद् विभ्यत् प्रविशति ततः पर्णशालां च भिक्षुः
धिग् धिक् कष्टं प्रथयति निजामाकृति रावणोऽयम् ।।191 ।। अत्र बहुविधानां मायानां सङ्कपेण कथनात्सक्षिप्तिः । जैसे अनर्घराघव (५.७) में
कनकमृग की प्रीति से सम बहुत दूर ले जाये गये, पीछे से उनके छोटे भाई लक्ष्मण भी उनका अनुसरण कर रहे हैं, एक साधु डरते-डरते उनकी पर्णशाला में प्रवेश कर रहा है, हायहाय, यह तो रावण है जो अपनी आकृति प्रकट कर रहा है।।191 ।।
यहाँ अनेक प्रकार की माया का सक्षेप में कथन होने के कारण सङ्क्षिप्ति है।
वदन्त्यन्ये तु तां नेतुरवस्थान्तरसङ्गतिम् ।। २८३।। अन्य आचार्य नेता की अवस्था के परिवर्तन को संक्षिप्ति कहते हैं।।२८३उ.।। यथा (अनर्घराघवे ४.५९)
यदर्थमस्माभिरसि प्रकोपितस्तदद्य दृष्ट्वा तव धाम वैष्णवम् । विशीर्णगर्वामयमस्मदान्तरं .
चिरस्य कञ्चिल्लघिमानमश्नुते ।।192।।
अत्र रामभद्रसहवासेन परिहतधीरोद्धतविकारस्य जामदग्नस्य धीरशान्तावस्थापरिग्रहात् सक्षिप्तिरिति। परिवर्तितभेदत्वात् तदुपेक्षामहे वयम् ।
जैसे (अनर्घराघव ४.५९ में)
मैंने आप को जिस लिए कुपित किया था, आप के उस वैष्णव तेज को देख कर हमारे हृदय का सारा रोग दूर हो गया, हमारे हृदय का भार हल्का हो गया है।।192।।
यहाँ रामभद्र के सहवास के कारण धीरोद्धत विकार को छोड़कर परशुराम के धीरप्रशान्त अवस्था में परिवर्तित होने के कारण संक्षिप्ति है।
यहाँ भेद में परिवर्तन होने के कारण हम उसकी उपेक्षा करते हैं।।२८४पू.।। अथावपातनम्
विभ्रान्तिरवपातस्तु स्यात् प्रवेशद्रावविद्रवैः ।। २८४।।
(आ) अवपातन- प्रवेश के कारण भगदड़ मच जाने और भय से भाग जाने से उतावला होना अवपातन कहलाता है।।२८६उ.।।
यथा (धनञ्जयविजये ६७)
हत्वा शान्तनुनन्दनस्य तुरगान् सूतं कुरूणां गुरोश्च्छित्वा द्रोणसुतस्य कार्मुकलतां कृत्वा विसंज्ञं कृपम् ।