________________
रसार्णवसुधाकरः
शङ्करस्य रहसि प्रपन्नया । शिक्षितं युवतिनैपुणं तया यत्
तदेव गुरुदक्षिणीकृतम् ।।109।। अत्र गुरुदक्षिणीकृतमित्यनेन प्रतिकरणरूपं प्रागल्भ्यं प्रतीयते। जैसे (कुमारसम्भव ८.१७ में)
पार्वती जी ने एकान्त में रतिकाल की शिक्षा देने वाले शिव जी से युवतियों के योग्य हावों-भावों की शिक्षा पायी थी, सम्भोग करते समय उन्होंने उन सबका व्यवहार करके मानों गुरुदक्षिणा के रूप में उन्हीं रतिगुरु को समर्पित कर दिया।।109 ।।
यहाँ गुरुदक्षिणा के रूप में समर्पित कर दिया- इससे प्रतिकर (क्षतिपूर्ति) रूपी प्रगल्भता प्रतीत होती है।
अथ माधुर्यम्
माधुर्यं नाम चेष्टानां सर्वावस्थासु मार्दवम् ।।१९७।।
८. माधुर्य- सभी अवस्थाओं में चेष्टाओं की मृदुता (कोमलता) माधुर्य कहलाती है।।१९७उ.॥
यथा (मालविकाग्निमित्रे २.६)
वामं सन्धिस्तिमितवलयं न्यस्य हस्तं नितम्बे कृत्वा श्यामाविटपसदृशं स्रस्तमुक्तं द्वितीयम् । पादाङ्गुष्ठालुलितकुसुमे कुट्टिमे पातिताक्षं
नृत्तादस्याः स्थितमतितरां कान्तमृज्वायतार्धम् ।।110।। अत्र पादाङ्गष्ठेन कुसुमलोलनादिक्रियायां नितान्तपरिश्रान्तावपि चारुत्वान्माधुर्यम्। जैसे (मालविकग्निमित्र २.६ में)
इसने अपना बाँया हाथ अपने नितम्ब पर रख लिया है अत एव हाथ का कड़ा पहुंचे पर रुक कर चुप हो गया है। दूसरा हाथ श्यामा की डाली के समान ढीला लटका हुआ है। आँखे नीची करके पैर के अङ्गुठे से धरती पर बिखरे हुए फूलों को सरका रही है। इस प्रकार खड़ी होने से ऊपर का शरीर लम्बा और सीधा हो गया है। नाचने के समय भी यह ऐसी सुन्दर नहीं लगती थी जैसी अब लग रही है।।110।।।
यहाँ पैरों के अङ्गठे से पुष्पचयन इत्यादि कार्यों में अत्यधिक थकान होने पर भी सुन्दरता के कारण माधुर्य है।
अथ धैर्यम्
स्थिरा चित्तोन्नतिर्या तु तद् धैर्यमिति संज्ञितम् ।