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प्रथमो विलासः
मधुकराङ्गनया मुहुरुन्मदध्वनिभृतानिभृताक्षरमुज्जगे ।।151 ।। अत्र स्फुटवर्णप्रायबन्यस्य निर्व्यढत्वात् समता ।
मिश्रबन्धसमता यथा 'उत्फुलमगण्डयुगमुद्गतमन्दहासम्' इत्यत्र मिश्रीभूतमृदुस्फुटवर्णबन्यस्य निव्यूढत्वान्मिश्रबन्यसमता।
स्फुटबन्य की समता जैसे (शिशुपालवध ६.२० में)
वसन्त के द्वारा विकसित माधवी पुष्पों की मकरन्द-समृद्धि से सम्बधित प्रतिभा वाली (अत एव) मतवाली ध्वनि से भरपूर तथा मनोहर भ्रमरियों के द्वारा मृदु अक्षरों वाला गान (गुजार) ऊँची ध्वनि में गाया गया ।।151 ।।
यहाँ स्फुटवर्णों की अधिकता वाले बन्ध की पूर्णता के कारण समता है।
मिश्रबन्धसमता जैसे- 'उत्फुल्लगण्डयुगमुद्गतमन्दहासम्' यहाँ मिश्रीतभूत मृदु स्फुट वर्ण की संघटना की पूर्णता के कारण मिश्रबन्ध समता है।
अथ माधुर्यम्___ तन्माधुर्यं भवेद्यत्र शब्देऽर्थे च स्फुटो रसः ।। २३४।।
४. माधुर्य- शब्द और अर्थ में जहाँ रस स्पष्ट होता है, वह माधुर्य कहलाता है।।२३४उ.|
यथा 'उत्फुल्लगण्डयुगम्' इत्यत्र शब्दार्थयोः शृङ्गाररसपरिवाहित्येन माधुर्यम्।
जैसे- 'उत्फुल्लगण्डयुगम् ' यहाँ शब्द और अर्थ दोनों में शृङ्गार रस के झलकने के कारण माधुर्य है।
अथ सुकुमारत्वम्
यदनिष्ठुरवर्णत्वं सौकुमार्यं तदुच्यते ।
५. सुकुमारता- अनिष्ठुर वर्णों (कोमलवणों) का प्रयोग सौकुमार्य कहलाता है।।२३५पू.॥
यथा 'उत्फुल्लगण्डयुगमुद्गतमन्दहासम्' इत्यत्र संयुक्ताक्षरसद्भावेऽप्यनिष्ठुरत्वात् सौकुमार्यम् ।
जैसे- 'उत्फुल्लगण्डयुगमुद्गतमन्दहासम्' यहाँ संयुक्ताक्षर होने पर भी निष्ठुर वर्णों के अभाव के कारण सुकुमारता है।
अथार्थव्यक्ति:
श्रूयमाणस्य वाक्यस्य बिना शब्दान्तरस्पृहाम् ।। २३५।।
अर्थावगमकत्वं यदर्थव्यक्तिरियं मता। ६. अर्थव्यक्ति- सुने हुए वाक्य का दूसरे शब्दों की इच्छा के बिना ही अर्थ का