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रसार्णवसुधाकरः
१. श्लेष- वह पदसंघटन श्लेष कहलाता है जिसमें अल्पप्राण वर्णों की प्रचुरता होती है तथा (बन्ध की) शिथिलता स्पष्ट नहीं दिखलायी पड़ती।।२३२।।
यथा ममैव 'उत्फुल्लगण्डयुगम्' इत्यादौ श्लिष्टवमिश्रित-बन्धनत्वाच्छ्लेषः।
जैसे शिङ्गभूपाल का ही- 'उत्फुल्लगण्डयुगम् ' इत्यादि में श्लिष्ट वर्ण से मिश्रित बन्ध होने के कारण श्लेष है।
अथ प्रसादः
प्रसिद्धार्थपदत्वं यत् स प्रसादो निगद्यते । २. प्रसाद- प्रसिद्ध अर्थ वाले पदों का प्रयोग प्रसाद कहलाता है।।२३३पू.॥ यथा 'उत्फुल्लगण्डयुगम्' इत्यत्र पदानामक्लशेनैवार्थबोधनसामर्थ्यात् प्रसादः।
जैसे- 'उत्फुल्लगण्डयुगम् ' इस उदाहरण में पदों में सरलता से अर्थबोध कराने की सामर्थ्य के कारण प्रसाद गुण है।
अथ समतावर्णवैषम्यराहित्यं
समता पदगुम्फनम् ।। २३३।। बन्धो मृदुः स्फुटो मिश्रः इति त्रेधा स भिद्यते ।
३. समता- विषम वर्गों से रहित पदों का गुम्फन (प्रयोग, बन्ध) समता कहलाता है। मृदु, स्फुट और मिश्र भेद से वह बन्ध तीन प्रकार का होता है।।२३३उ.-२३४पू.।।
तत्र मृदुबन्यस्य समता यथा
चरणकमलकान्त्या देहलीमर्चयन्ती कनकमयकपाटं पाणिना कम्पयन्ती । कुवलयमयमक्ष्णा तोरणं पूरयन्ती
वरतनुरियमास्ते मन्दिरस्येव लक्ष्मी ।।150।। अत्र मृदुवर्णप्रायबन्यस्य नियूंढत्वान्मृदुबन्यसमता । मृदुबन्ध की समता जैसे
(अपने) चरण रूपी कमल की कान्ति से ड्योढ़ी (दरवाजे के चौखट की अर्चना करती हुई, हाथों से सुवर्ण से निर्मित कपाट को कैंपाती (हिलाती) हुई तथा कमल के समान नेत्रों से तोरण के स्थान को पूरा करती हुई यह अतिसुन्दर शरीर वाली (रमणी) मन्दिर (घर) की लक्ष्मी (शोभा) के समान है।।150।।
यहाँ मृदु वर्णों की अधिकता वाले बन्ध की पूर्णता के कारण मृदुबन्ध समता है। स्फुटबन्यसमता यथा (शिशुपालवधे ६.२०)
मधुरया मधुबोधितमाधवीमधुसमृद्धिसमेधितमेधया ।