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रसार्णवसुधाकरः
परिवर्तक है।
अथ कैशिकी
नृत्तगीतविलासादिमृदुशृङ्गारचेष्टितैः
समन्विता भवेवृत्तिः कैशिकी श्लक्ष्णभूषणा ।। २६८।।
३. कौशिकी वृत्ति- कैशिकी वृत्ति नृत्त, गीत, मनोरञ्जन (विलास) इत्यादि के कारण कोमल शृङ्गार की चेष्टा से युक्त सुकुमार शोभा वाली होती है।।२६८।।
__ अङ्गान्यस्यास्तु चत्वारि नर्म तत्पूर्वका इमे ।
स्फञ्जस्फोटौ च गर्भश्चेत्येषां लक्षणमुच्यते ।। २६९।।
कैशिकी वृत्ति के अङ्ग- इसके चार अङ्ग होते हैं- १. नर्म, २. नर्मस्फञ्ज, ३. नर्मस्फोट और ४. नर्मगर्भ। इनका लक्षण कहा जा रहा है।।२६९॥
तत्र नर्म
शृङ्गाररसभूयिष्ठः प्रियचित्तानुरञ्जकः । अग्राम्यः परिहासस्तु नर्म स्यात् तत् त्रिधा मतम् ।। २७०।।
शृङ्गारहास्यजं शुद्धहास्यजं भयहास्यजम् ।
१. नर्म- शृङ्गार रस की प्रचुरता वाला और प्रिय के चित्त को प्रसन्न करने वाला शिष्ट (अग्राम्य) परिहास नर्म कहलाता है। वह तीन प्रकार का कहा गया है- (अ) शृङ्गारहास्यज (आ) शुद्धहास्यज तथा (इ) भयहास्यज ॥२७०-२७१पू.।।
शृङ्गारहास्यजं नर्म त्रिविधं परिकीर्तितम् ।। २७१।। सम्भोगेच्छाप्रकटनादनुरागनिवेदनात् ।
तथा कृतापराधस्य प्रियस्य प्रतिभेदनात् ।। २७२।।
(अ) शृङ्गारहास्यज- शृङ्गारहास्यज नर्म तीन प्रकार का कहा गया है- सम्भोगेच्छा प्रकटन से, अनुराग निवेदन से तथा प्रियापराधनिभेद (प्रियतम द्वारा किये गये अपराध को प्रकट करने) से ॥२७१उ.-२७२पू.।।
सम्भोगेच्छाप्रकटनं त्रिधा वाग्वेषचेष्टितैः ।
सम्भोगेच्छाप्रकटन- सम्भोगेच्छाप्रकटन तीन प्रकार से होता है- वाणी द्वारा, वेष द्वारा तथा चेष्टा द्वारा।।२७३॥
तत्र वाचा सम्भोगेच्छाप्रकटनाद् यथा (काव्यप्रकाशे उद्धृतम् १२६)
गच्छाम्यच्युत दर्शनेन भवतः किं तृप्तिरुत्पद्यते किन्त्वेवं विजनस्थयोर्हतजनः सम्भावत्यन्यथा । इत्यामन्त्रणभङ्गिसूचितवृथावस्थानखेदालसा