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रसार्णवसुधाकरः
लज्जा को छोड़ कर भगवान् शङ्कर के साथ हँस पड़ी थीं उससे आज भी वे जगन्नाथ शङ्कर जी मुझ पर प्रसन्न रहते हैं।।181 ।।
यहाँ भृङ्गिरिटि के वेष से शिव और पार्वती के हास्य की उत्पत्ति के कारण शुद्धहास्यज है।
चेष्टया शुद्ध हास्यजं यथा
देव्या लीलालपितमधुरं लास्यमुल्लासयन्त्या यः शृङ्गारो रहसि पुरतः पत्युराविष्कृतोऽभूत् । युष्मानव्यात् तदुपजनितं हास्यमम्बानुकारी
क्रीडानृत्यैविकटगतिभिर्व्यञ्जयन् कुञ्जरास्यः ।।182।। चेष्टा द्वारा शुद्धहास्यज जैसे
लीला-पूर्वक कहे जाने से मधुर लास्य को प्रकट करती हुई देवी (पार्वती) के द्वारा एकान्त में पति (शङ्कर) के सामने जो शृङ्गार अभिव्यक्त किया गया, उससे उत्पन्न हास्य को क्रीडानृत्य के कारण विकट गति से अभिव्यञ्जित (प्रकट) करते हुए माता (पार्वती) का अनुकरण (अनुसरण) करने वाले गणेश आप लोगों की रक्षा करें।।182 ।।
अथ भयहास्यम्
हास्याद्भयेन सहिताज्जनितं भयहास्यजम् ।
तद्विधा मुख्यमङ्गं च तद्वयं पूर्ववत् त्रिधा ।। २७५।।
(इ) भयहास्यज- भय के सहित हास्य से उत्पन्न भयहास्यज कहलाता है। वह भयहास्यज दो प्रकार का होता है- मुख्य और अङ्ग। ये (मुख्य और अङ्ग) दोनों पहले के समान (वाणी द्वारा, वेष द्वारा तथा चेष्टा द्वारा) तीन-तीन प्रकार के होते हैं।।२७५॥
मुख्यं भयहास्यजं यथा
क्षेत्राधीशशुना नवेन विदिताकारैकविद्वेषिणा घोरारावमभिद्रुतस्य विकटः पश्चात्पदैर्गच्छतः । पा पा पाहि हि हीति सत्वरतरं व्यक्ताक्षरं जल्पतो
दृष्ट्वा भृङ्गिरिटेर्दशा पशुपतिः स्मेराननः पातु वः ।।183 ।।
अत्र भृङ्गिरिटेर्विकृताकारेण विकटपश्चाद्गमनेन पाहिपाहि पाहीत्यत्र वर्णत्रयव्यत्यासेन भाषणेन च जनितस्य पशुपतिहासस्यान्यरसानङ्गतया मुख्यं भयहास्यजम्।
मुख्य भयहास्यज जैसे
आकार (आकृति) जानने (पहचानने) के कारण शत्रुता रखने वाले तथा नये खेत के स्वामी के कुत्ते द्वारा तेज गर्जना करने पर शीघ्रता करने वाले, विस्तृत (बडे-बड़े) पदों (डगों) से