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पीछे जाते हुए तथा शीघ्रता के कारण ' पा पा पाहि हि हि' इस प्रकार अस्पष्ट अक्षरों को बोल हुए भृङ्गिरिटि की दशा को देख कर मुस्कराते हुए पशुपति (भगवान् शङ्कर) तुम लोगों की रक्षा... करें । 1183 11
यहाँ भृङ्गिरिटि के विकृत आकार, बड़े-बड़े डगों से पीछे जाने और 'पाहि पाहि पाहिं (के स्थान पर पा पा पाहि हि हि) इस प्रकार तीन वर्ण के विपरीत क्रम से कहने से उत्पन्न पशुपति के हास का अन्य रस का अङ्ग न होने के कारण मुख्य भयहास्यज है।
महाननर्थः ।
प्रथमो विलासः
वाचान्यरसाङ्गं भयहास्यजं यथा रत्नावल्याम् (३.१४ पद्यादन्तरम्) - विदूषकः- कहं ण किदो पसादो देवीए, जं अज्ज वि अक्खदसरीरा चिट्ठम । (कथं न कृतो प्रसादः देव्याः, यदद्याप्यक्षरशरीरास्तिष्ठामः) ।
राजा - ( सस्मितम् ) मूर्ख ! कि परिहससि । त्वत्कृत एवापतितोऽयमस्माकं
भयहास्यजम् ।
बाद में)
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इत्यादौ विदूषकवाक्यजनितस्य महाभयस्य शृङ्गाराङ्गतया कथितत्वादिदमङ्ग
वाणी द्वारा अन्यरसाङ्ग- भयहास्यज जैसे रत्नावली में। ( ३.१४ पद्य से
विदूषक - (महारानी वासवदत्ता की ) क्या यह की गयी कृपा नहीं हैं (अर्थात् महारानी ने अवश्य कृपा किया है) जो कि अब भी हम दोनों ज्यों के त्यों शरीर वाले बने हुए हैं (अर्थात् सुरक्षित हैं)।
राजा - (मुस्करा कर) अरे मूर्ख ! धिक्कार है। इस प्रकार मेरा मजाक क्यों उड़ा रहे हो! वास्तव में, तुम्हारे कारण ही हमारे ऊपर यह महान् अनर्थ आ पड़ा है।
वेषेण यथा
इत्यादि में विदूषक के कथन से उत्पन्न महाभय का शृङ्गार के अङ्ग के रूप में कथन होने के कारण अङ्गभयहास्यज है।
कल्याणदायि भवतोऽस्तु पिनाकपाणिपरिग्रहे भुजगकङ्कणभीषितायाः सम्भ्रान्तदृष्टिः सहसैव नमः शिवायेत्यर्धोक्तिसस्मितनतं
मुखमम्बिकायाः ।।184।।
अत्र भुजङ्गकङ्कणलक्षणेन वेषेण जनितस्य पार्वतीभयहास्यस्य शृङ्गाराङ्गतया कथनात् तदिदमङ्गं भयहास्यजम् ।
वेष द्वारा (अन्यरसाङ्गभयहास्यज) जैसे
शङ्कर जी के विवाह में (उनके) सर्प रूपी कङ्गन से भयभीत पार्वती का व्याकुल नेत्रों