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रसार्णवसुधाकरः
अवबोध हो जाना अर्थव्यक्ति कहलाता है ।। २३५उ. - २३६पू. ।।
यथा- 'उत्फुल्लगण्डयुगम्' इत्यत्र सर्वेषां पदानामध्याहार्य-पदनिराकाङ्क्षतयार्थव्यक्तिः ।
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जैसे- 'उत्फुल्लगण्डयुगम्' यहाँ सभी पदों को अध्याहार योग्य पदों की आकांक्षा के बिना अर्थव्यक्ति है।
अथोदारत्वम्
उक्ते वाक्ये गुणोत्कर्षभानमुदारता ।। २३६ ।।
७. उदारता - कहे गये वाक्य में गुणोत्कर्ष का प्रकट होना उदारता कहलाता है ।। २३६उ. ।। यथा 'उत्फुल्लगण्डयुगम्' इत्यत्रान्योन्यानुरागोत्कर्षप्रतिभानादुदारत्वम् । जैसे- 'उत्फुल्लगण्डयुगम्' यहाँ (नायिका- नायक के) परस्पर अनुराग के उत्कर्ष के प्रकट होने से उदारता है।
अथौज:
'समासबहुलत्वं यत् तदोजः इति गीयते ।
८. ओज- समास की बहुलता होना ओज कहलाता है ।। २३७पू. ।।
यथा 'उत्फुल्लगण्डयुगम्' इत्यत्र यथोचितसमासबाहुल्यादोजः ।
जैसे - उत्फुल्लगण्डयुगम्' यहाँ यथोचित समास की बहुलता के कारण ओज है। अथ कान्तिः
हृद्यार्थप्रतिपादनम् ।। २३७ ।।
लोकस्थितिमनुलङ्घ्य
कान्तिः स्याद् द्विविधा ख्याता वार्त्तायां वर्णनासु च । नाम कुशलप्रश्नपूर्विका सङ्कथा ।
वार्त्ता
९. कान्ति - लोकस्थिति का उल्लङ्घन न करके हृदयग्राही अर्थ का प्रतिपादन करना कान्ति कहलाता है। यह दो प्रकार की होती है- १. वार्ता में तथा २. वर्णन में
।।२३७उ.-२३८पू.॥
वार्ता का तात्पर्य है— कुशल प्रश्न पूर्वक कथन ।
तत्र यथा
परिधौतभवत्पादाम्बुना
नवचन्द्रातपशीतलेन मे ।
अपि सन्तप्तमर्मकृन्तनः कृतनिर्वाण इवौर्वपावकः ।।152।।
कुशल - प्रश्नपूर्वक जैसे
नूतन चन्द्रमा की किरणों के समान शीतल, आप के पैरों को धोये हुए जल से निरन्तर