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प्रथमो विलासः
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मेरे अन्तस्थल को पीड़ित करने वाला पाप उसी प्रकार शान्त (विनष्ट) हो गया है जैसे जल से अग्नि शान्त हो जाता है।।1 52 ।।
___ अत्र ब्राह्मणपादोदकस्य सन्तापशमनरूपा लौकिकी स्थितिमनुलद्ध्यैव समुद्रेण मुनीनां पुरतः सङ्कथनात् कान्तिः।
यहाँ ब्राह्मण के पादोदक (पैर धोने के जल) का सन्ताप-शान्ति रूप लौकिक स्थिति का उलङ्घन न करके ही समुद्र का मुनियों के सामने कथन होने से कान्ति है।
वर्णनायां यथा ममैव
उत्तुङ्गौ स्तनकलशौ रम्भास्तम्भोपमानमूरुयुगम् ।
तरले दृशौ च तस्या सृजता धात्रा किमाहितं सुकृतम् ।।153।।
अत्र विशिष्टवस्तुनिर्माणमपुण्यकृतां न सम्भवतीति लोकस्थित्यनुरोधेनैव वर्णनात् कान्तिः।
वर्णन में जैसे शिङ्गभूपाल का ही
उस (नायिका) के ऊपर उभड़े हुए दोनों स्तन रूपी कलश हैं, कदली के खम्भे के समान दोनों जङ्घाएँ हैं और स्नेह युक्त दोनों आँखे हैं- इस प्रकार उसको बनाने वाले ब्रह्मा के द्वारा कौन सा पुण्य सत्रिविष्ट नहीं कर दिया गया है।।153 ।।
यहाँ विशिष्ट वस्तु का निर्माण अपुण्यकार्य से सम्भव नहीं है इस प्रकार लोकस्थिति का उल्लङ्न होने के वर्णन के कारण कान्ति है।
अथ समाधिः___ समाधिः सोऽन्यधर्माणां यदन्यत्राधिरोपणम् ।। २३८।।
१०. समाधि- अन्य गुणों को अन्यत्र आरोपित करना समाधि कहलाता है। २३८उ.।।
___ यथा 'उत्फुल्लगण्डयुगम्' इत्यत्रोत्फुल्लोद्गतोद्वेलत्वरूपाणां पुष्पप्राणिसमुद्रधर्माणां गण्डस्थलमन्दहासरागेषु समारोपितत्वात् समाधिः।
जैसे- 'उत्फुल्लगण्डयुगम् ' यहाँ, उत्फुल्ल, उद्गत और उद्वेलता रूपी क्रमशः पुष्प, प्राणि और समुद्र के गुणों का कपोल, मन्दहास और अनुराग में समारोपण करने के कारण समाधि है।
अथ कठिना
अतिदीर्घसमासयुता बहुलैर्वर्णैर्युता महाप्राणैः ।
कठिना सा गौडीयेत्युक्ता तद्देशबुधमनोज्ञत्वात् ।। २३९।। ११. कठिना रीति- अत्यधिक लम्बे समास (वाले पदों) से युक्त तथा महाप्राण