________________
प्रथमो विलासः
[ ९९]
की चञ्चलता से अस्त-व्यस्त यह कमलिनीदल की शय्या, कृशाङ्गी (दुर्बल शरीर वाली) सुन्दरी के सन्ताप को प्रकट करती है।।155 ।।
अत्राल्पसमासत्वदीर्घसमासत्वरूपयोः प्रसादस्फुटबन्धत्वरूपयोरनिष्ठुर निष्ठुराक्षरप्रायत्वरूपयोः पृथक्पदत्वग्रन्थिलत्वयोश्चोभयरीतिधर्मयोस्तुलाधृतवत् सन्निवेशान्मिश्रेयं रीतिः।
यहाँ समासरहितता और दीर्घसमासता रूपी, प्रसाद और स्पष्ट बन्धता रूपी अनिष्ठुर (कोमल) और निष्ठुर अक्षरों का आधिक्य तथा पृथक्पदता और ग्रन्थिलता (जटिलता) रूप वाली (कोमला तथा कठिना) दोनों रीतियों के गुणों का बराबर-बराबर सनिवेश (मिश्रण) होने के कारण यह मिश्रा रीति है।
आन्ध्री लाटी च सौराष्ट्रीत्यादयो मिश्ररीतयः । सन्ति तद्देशविद्वत्प्रियमिश्रभेदतः ।। २४१।। त एव पदसङ्घातास्ता एवार्थविभूतयः । तथापि नव्यं भवति काव्यं प्रथनकौशलात् ।। २४२।। तासां ग्रन्थगडुत्वेन लक्षणं नोच्यते मया ।
भोजादिग्रन्थबन्धेषु तदाकाक्षिभिरीक्ष्यताम् ।।२४३।।
तत्तत् देश के विद्वानों के लिए प्रिय तथा देश-भेद के कारण पृथक्- पृथक् आन्ध्री, लाटी और सौराष्ट्री इत्यादि रीतियाँ मिश्र रीतियाँ हैं।।२४१॥
__ वे ही पद के सङ्घटन तथा अर्थ की विभूतियाँ है तथापि काव्य ग्रथन की निपुणता के कारण नूतन हो जाती हैं। ग्रन्थ विस्तार न हो- इस कारण उनका लक्षण मेरे (शिङ्गभूपाल के) द्वारा नहीं किया गया है। उसके जानने की इच्छा रखने वालों को भोजराज इत्यादि लोगों के लक्षण-ग्रन्थों में देख लेना चाहिए।।२४१-२४३।।
अथ वृत्तयः
भारती सात्त्वती च कैशिक्यारभटीति च ।
चतस्रो वृत्तयस्तासामुत्पत्तिर्वक्ष्यते स्फुटम् ।। २४४।।
२. वृत्तियाँ- १. भारती, २. सात्त्वती, ३. कैशिकी और ४. आरभटी- ये चार वृत्तियाँ होती है। इनकी उत्पत्ति के विषय में स्पष्ट रूप से कहा जा रहा है।।२४४॥
जगत्येकार्णवे जाते भगवानव्ययः पुमान् ।
भोगिभोगमधिष्ठाय योगनिद्रापरोऽभवत् ।। २४५।।
वृत्तियों की उत्पत्ति-कथा- (प्रलय काल में) संसार के समुद्र में समाहित हो जाने पर अविनाशी भगवान् पुरुष योगनिद्रा में संलग्न (समाधिष्ठ) हो गये।।२४५।।
__ तदा वीर्यमदोन्मत्तौ दैत्येन्द्रौ मधुकैटभौ । रसा.१०