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प्रथमो विलासः
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वर्गों की स्वल्पता वाली, अल्पप्राण (अर्थात्) वर्गों के प्रथम और तृतीय (स्पर्श) वाले अक्षरों की अधिकता से युक्त, दश प्राणों से समन्वित और समास-रहित या छोटे समास वाले पदों से विभूषित होती है। यह रीति विदर्भदेश के लोगों के लिए हृदयग्राही होने के कारण वैदर्भी रीति भी कहलाती है।।२२७उ.-२३०पू.।।
महाप्राणवर्णाल्पत्वमल्पप्राणाक्षरप्रायत्वं च यथा ममैव (कुवलयावल्याम् २.४)
उत्फुल्लगण्डयुगमुद्गतमन्दहासमुद्वेलरागमुररीकृतकामतन्त्रम् । हस्तेन हस्तमवलम्ब्य कदानु सेवे
संल्लापरूपममृतं सरसीरुहाक्ष्याः ।।148।। -
महाप्राण वर्गों की अल्पता तथा अल्पप्राण वर्गों की अधिकता वाली कोमला रीति जैसे शिङ्गभूपाल का ही
कमल के समान नेत्रों वाली (इस नायिका) के पुलकित दोनों कपोलों वाले, निकलते हुए मन्द हास से युक्त, उमड़े हुए अनुराग वाले, हृदय में स्वीकृत (उत्पन्न) काम-क्रिया वाले संल्लाप रूपी अमृत को अपने हाथों से उसके हाथ को सहारा देकर कब सुनूँगा।।148 ।।
समासराहित्यं यथा- (रघुवंशे १/५४)
अथ यन्तारमादिश्य धुर्यान् विश्रामयेति सः ।
तामारोपयत् पत्नी रथादवततार च ।।149।। समासरहित कोमला रीति जैसे (रघुवंश १.५४ में)
महाराज रघु 'घोडों की थकावट दूर करो' सारथी को ऐसी आज्ञा देकर उस सुदक्षिणा को रथ से उतारा और स्वयं उतरे ।।149।।
दशप्राणास्तु
श्लेषः प्रसादः समता माधुर्यं सुकुमारता ।।२३०।। अर्थव्यक्तिरुदारत्वमोजः कान्तिसमाधयः ।
एते वैदर्भमार्गस्य प्राणाः दश गुणाः स्मृताः ।।२३१।।
दश प्राण- वैदर्भी रीति के प्राणस्वरूप ये दश गुण है- १. श्लेष, २. प्रसाद, ३. समता, ४. माधुर्य, ५. सुकुमारता, ६. अर्थव्यक्ति, ७. उदारता, ८. ओज, ९. कान्ति और १०. समाधि।।२३०उ.-२३१॥
तत्र श्लेष:
केवलाल्पप्राणवर्णपदसन्दर्भलक्षणम् । शैथिल्यं यत्र न स्पष्टं स श्लेषः समुदाहृतः ।। २३२।।