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रसार्णवसुधाकरः
गर्व से विब्बोक जैसे
सैकड़ों समझाने वाली बातों से पुरुष द्वारा अनुनय की जाती हुई किसी (रमणी) ने निराश्रित (रमणी) के समान मदिरा को चुम्बन कर लिया (मदिरा को पी लिया)। वामशीला (कुटिल) स्त्रियाँ अपने अभीष्ट अर्थों को भी परार्थ (दूसरी स्त्री के लिए उपयोगी) के समान मान लेती हैं।।121 ।।
मानाद् यथा (कुमारसम्भवे ८/४९)
निर्विभुज्य दशनच्छदं ततो वाचि भर्तुरवधीरणापरा ।
शैलराजतनया समीपगामाललाप विजयामहेतुकम् ।।122 ।। अत्र सन्ध्यानिमित्तमनादरेण विब्बोकः। मान से विब्बोक जैसे (कुमारसम्भव ८.४९ में)
शङ्कर जी की बात सुनकर पार्वती जी ने जैसे उसकी ओर बिल्कुल ध्यान ही नहीं दिया और अनिच्छा के कारण अपने होठों को विचका दिया तथा वही बैठी हुई अपनी सखी विजया से इधर-उधर की निरर्थक बातों में लग गयीं।।122।।
यहाँ सन्ध्या के निमित्त अनादर के कारण विब्बोक है। अथ ललितम्
विन्यासभङ्गिरङ्गानां भ्रूविलासमनोहरा ।।२०६।।
सुकुमारा भवेद्यत्र ललितं तमुदीरितम् ।
९. ललित- अङ्गों, भ्रूविलास से मनोहर सुकुमार विन्यासभङ्गिमा ललित कहलाती है।।२०६उ.-२०७पू.॥
यथा
चरणकमलकान्त्या देहलीमर्चयन्ती कनकमयकपाटं पाणिना कम्पयन्ती । कुवलयमयमक्ष्णा तोरणं पूरयन्ती वरतनुरियमास्ते मन्दिरस्येव लक्ष्मीः ।।123 ।।
जैसे
(अपने) चरण रूपी कमल (की कान्ति) से ड्योढ़ी (दरवाजे के चौखट) की अर्चना करती हुई, हाथों से सुवर्णनिर्मित कपाट को कैंपाती (हिलाती) हुई, कमल के समान नेत्रों से तोरण (के स्थान) को पूरा करती हुई यह अति सुन्दर शरीर वाली (रमणी) मन्दिर (घर) की लक्ष्मी (शोभा) के समान है।।123 ।।
अथ विहृतम्
ईय॑या मानलज्जाभ्यामादन्तं योग्यमुत्तरम् ।।२०७।।