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रसार्णवसुधाकरः
मुहुःप्रलाप इत्याद्या इष्टाश्चेष्टा मनीषिभिः ।
(५) कलहान्तरिता- जो सखियों के सामने पैरों पर गिरे हुए प्रियतम को क्रोध से दूर भगा कर बाद में पश्चात्ताप करती है, वह कलहान्तरिता कहलाती है। मनीषियों द्वारा इधर-उधर घूमना, सन्ताप, मूर्छा, नि:श्वास, ज्वर, बार-बार प्रलाप इत्यादि इसकी चेष्टाएँ कही गयी है।।१३२उ.-१३४ पू.॥
यथा ममैव
निःशङ्का नितरां निरस्य दयितं पादानतं प्रेयसी कोपेनाद्य कृतं मया किमिदमित्यार्ता सखीं जल्पति । सोद्वेगं भ्रमति क्षिपत्यनुदिशं दृष्टिं विलोलाकुलां
रम्यं द्वेष्टि मुहुर्मुहुः प्रलपति श्वासाधिकं मूर्च्छति ।।64।। जैसे शिङ्गभूपाल का ही
निःशङ्क प्रियतमा पैरों पर गिरे हुए प्रियतम को दूर भगा कर पुनः दुःखी हो गयी। उसने सखी से कहा कि आज क्रोध के कारण मैंने यह क्या कर दिया। (फिर) क्षोभ के साथ (इधर-उधर) घूमने लगी तथा चञ्चल और व्याकुल दृष्टि को चारों ओर डालने लगी, रमणीय वस्तु से द्वेष करने लगी, बार-बार प्रलाप करने लगी तथा लम्बी-लम्बी साँसें छोड़ने लगी।।64 ।।
अथाभिसारिका
मदनानलसन्तप्ता याभिसारयति प्रियम् ।।१३४।। ज्योत्स्नातमस्विनीयानयोग्याम्बरविभूषणा । स्वयमभिसरेद् या तु सा भवेदभिसारिका ।।१३५।।
अस्याः सन्तापचिन्ताद्या विक्रियास्तु यथोचितम् ।
(६) अभिसारिका- कामाग्नि से सन्तप्त जो (नायिका) प्रियतम को (अपने पास बुलाकर उससे) सम्भोग कराती है अथवा (चाँदनी रात्रि में) चाँदनी में छिपने योग्य (सफेद) तथा (अन्धेरी रात में) अन्धेरे में छिपने योग्य (काले) वस्त्र को पहनी हुई (प्रियतम के पास जाकर) स्वयं (उससे) सम्भोग करती है, वह अभिसारिका कहलाती है यथोचित सन्ताप, चिन्ता इत्यादि इसकी विक्रियाएँ होती है।।१३४उ.-१३६पू.।।
कान्ताभिसरणे स्वीया लज्जानाशादिशङ्कया ।।१३६।। व्याघ्रहुङ्कारसन्त्रस्तमृगशावविलोचना । नील्यादिरक्तवसनारचितङ्गावगुष्ठना ।।१३७।। स्वाने विलीनावयवा निश्शब्दपदचारिणी । सुस्निग्धसखीमात्रयुक्ता याति समुत्सुका ।।१३८।।