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रसार्णवसुधाकरः
वस्त्रालङ्कार जैसे (कुमारसम्भव ७.२६ में) -
नूतन रेशमी वस्त्र पहन कर और दर्पण हाथ में लेकर पार्वती इस प्रकार सुशोभित हुई मानों फेन मेंढकी हुई क्षीरसागर की तटभूमि हो अथवा पूर्णचन्द्रमा से सुशोभित शरत्कालीन रात्रि हो । । 84 ।।
भूषालङ्कारो यथा ( कुमारसम्भवे ७/२१) - सा सम्भवद्भिः कुसुमैर्लतेव ज्योतिभिरुद्यद्भिरिव त्रियामा । सरिद्विहङ्गैरिव लीयमानैरामुच्यमानाभरणा चकाशे ।।85।।
भूषालङ्कार जैसे (कुमारसम्भव ६.२१ मे ) -
जिस प्रकार फूलों से भरी हुई लता अथवा तारों से जगमगाती हुई रात अथवा रंगबिरंगे पक्षियों के आ जाने से नदी अत्यधिक सुहावनी लगने लगती है उसी प्रकार विभिन्न आभूषणों को धारण करने पर पार्वती की शोभा और खिल उठी । 185 ।।
माल्यानुलेपनालङ्कारो यथा
आलोलैरनुमीयते मधुकरैः केशेषु
माल्यग्रहः
कान्तिः कापि कपोलयोः प्रथयते ताम्बूलमन्तर्गतम् । परिमलैरालेपनप्रक्रिया
अङ्गानामवगम्यते
वेषः कोऽपि विदग्ध एष सुदृशः सूते सुखं चाक्षुषोः ।।86।।
माल्य और अनुलेपन अलङ्कार जैसे
उड़ते हुए भ्रमरों के कारण (इस नायिका के) बालों में माला लगी होने का अनुमान होता है। दोनों गालों की कान्ति ताम्बूल के भीतर विस्तृत होती है। सुगंध के कारण अङ्गों पर (सुगन्धित - द्रव्यों) के अवलेप लगाने का बोध होता है। इस प्रकार किसी सुन्दर दृष्टि वाले निपुण प्रसाधक ने नायिका का यह वेष बनाया है जो (देखने वाले की ) आँखों के लिए आनन्द उत्पन्न कर रहा है । 186 ।।
अथ तटस्था
तटस्थाश्चन्द्रिका धारागृहचन्द्रोदयावपि ।। १८७ ।। कोकिलालापमाकन्दमन्दमारुतषट्पदाः । लतामण्डपभूगेहदीर्घिकाजलदारवाः ।। १८८ ।। प्रासादगर्भसङ्गीतक्रीडाद्रिसरिदादयः
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एवमूह्या यथाकालमुपभोगोपयोगिनः ।। १८९ ।।
४. तटस्था- चन्द्रिका, धारागृह, चन्द्रोदय, कोकिलालाप, माकन्द, मन्दमरुत्,