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रसार्णवसुधाकरः
पुंस्कोकिलो यन्मधुरं चुकूज । मनस्विनीमानविघातदक्षं
तदेव जातं वचनं स्मरस्य ।।१०।। कोकिलालाप का जैसे (कुमारसम्भव ३.३२ में)
आम्रमञ्जरियों के खा लेने से कषैले कंठ वाली कोकिल की मधुर कूक ही मानिन नायिकाओं का मानभङ्ग कराने में निपुण कामदेव की वाणी जैसी प्रतीत हो रही थी।।१०।।
माकन्दस्य यथा
चिरलालित एष बालचूतः स्वकरावर्जितवारिसेकैः । कुसुमायुधसायकान् प्रसूते
पयसा पनगवर्धनं तदेतत् ।।91 ।। माकन्द इत्यशोकादीनामप्युपलक्षणम् । माकन्द का जैसे
बहुत दिनों तक अपने हाथों द्वारा गिराये गये पानी के सेचन से (अब बड़ा हो गया) यह छोटा आम्र का वृक्ष उसी प्रकार (अपनी) मञ्जरी के रूप में कामदेव के बाणों को उत्पन्न कर रहा है जैसे दूध पिलाए गये साँप में विष ही बढ़ता है।।91 ।।
यहाँ माकन्द शब्द अशोक आदि का भी उपलक्षण है। मन्दमारुतस्य यथा
भृशं निपीतो भुजगाङ्गनाभिविनिर्गतस्तद्गरलेन साकम् तदन्यथा चेत् कथमक्षिणोत् ता
मदक्षिणो दक्षिणमातरिश्वा ।।92।। मन्द वायु का जैसे
सर्पिणियों द्वारा पूर्ण रूप से पान किया गया पुनः (उनके) विष के साथ निकला हुआ नहीं है होता तो दक्षिण से बहने वाला मूर्ख वायु कैसे इस नायिका को क्षीण करता।।92।। षट्पदस्वरूपस्य यथा
मधुव्रतानां मदमन्थराणां मन्त्रैरपूर्वैरिव मञ्जुनादैः ।
मधुश्रियो मानवतीजनानां मानग्रहोच्चाटनमाचरन्ति ।।93 ।। भ्रमर स्वरूप का जैसेमधु पीने का व्रत धारण करने वाले (मधुपान में तल्लीन) अत एव मन्द गति वाले