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प्रथमो विलासः
षटपद, लतामण्डप, भूगेह, दीर्घिका, जलदारव, प्रासादगर्भ, सङ्गीत, क्रीडाद्रि, सरिता इत्यादि समयानुसार उपभोग के लिए उपयोगी वस्तुएँ तटस्था कहलाती है।।१८७उ.-१८९।।
तत्र चन्द्रिकायामुद्दीपनत्वं यथा
दुरासदे चन्द्रिकया सखीजनैलतानिकुञ्जे ललना निगूहिता । चकोरचञ्चुच्युतचन्द्रिकाकणं
कुतोऽपि दृष्ट्वा भजति स्म मूर्च्छनाम् ।।87।। चन्द्रिका (चाँदनी) से उद्दीपनता जैसे
चाँदनी के लिए भी दुर्गम लताओं के झुरमुट में सखियों के द्वारा ललना (स्वेच्छाचारिणी तरुणी) छिपा दी गयी। वहाँ भी कहीं से आयी हुई चकोर (नामक पक्षी) के चोंचों से निकल कर बचे हुए चाँदनी के कण (टुकड़े) को देखकर मूर्छा को प्राप्त हो गयी।।87।।
धारागृहस्य यथा
सा चन्द्रकान्तामपि चन्द्रकान्तवेदीमधिष्ठातुमपारयन्ती । धारागृहं प्राप्य - तदप्यनङ्ग
घोरासिधारागृहमन्वमस्त ।।88।। धारागृह की उद्दीपनता जैसे
रमणीय तथा चन्द्रकान्त (मणि) से निर्मित चबूतरे पर बैठने में असमर्थ भी उसने धारागृह में प्रवेश करके कामदेव के तीव्र धार वाले घर को प्राप्त किया।।88 ।।
चन्द्रोदयस्य यथा
चन्द्रबिम्बमुदयाद्रिमागतं वञ्चकेन सखि! वञ्चिता वयम् । अत्र किं निजगृहं न नयस्व मां
तत्र वा किमिति विव्यथे वधूः ।।89।। चन्द्रोदय का जैसे
"हे सखी! चन्द्रबिम्ब उदयाचल पर आ गया है और सङ्केत करके इस स्थान पर न आने वाले (नायक) ने हम लोगों को धोखा दिया है। (अब) यहाँ रहने से क्या लाभ? मुझे अपने घर ले चलो अथवा वहाँ भी चलने क्या लाभ- इस प्रकार वधू व्यथित होती है।।89।।
कोकिलालापस्य यथा (कुमारसम्भवे ३/३२)
चूताङ्कुरास्वादकषायकण्ष्ठः