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रसार्णवसुधाकरः
(चित्तारम्भ), २. गात्रज (गात्रारम्भ), ३. वाग्ज (वागारम्भ), ४. बुद्धिज (बुद्ध्यारम्भ।।१९१पू.।।
(अथ चित्तजाः)
तत्र च भावो हावो हेला शोभा च कान्तिदीप्ती च ।।१९१।।
प्रागल्भ्यं माधुर्यं धैर्योदार्ये च चित्तजा भावाः ।
१. चित्तज अनुभाव- १. भाव, २. हाव, ३. हेला, ४. शोभा, ५. कान्ति, ६. दीप्ति, ७. प्रागल्भ्य, ८. माधुर्य, ९. धैर्य और १०. उदारता- ये चित्तज अनुभाव हैं।।१९१उ.-१९२पू.॥
तत्र भावः
निर्विकारस्य चित्तस्य भावः स्यादादिविक्रिया ।।१९२।। यथोक्तं हि प्राक्तेनैरपि
चित्तस्याविकृतिः सत्वं विकृते कारणे सति ।
ततोऽल्पा विकृति वो बीजस्यादिविकारवत् ।। इति १. भाव- निर्विकार चित्त का प्रारम्भिक विकार भाव कहलाता है।।१९२उ.।। जैसा पूर्ववर्ती आचार्यों द्वारा भी कहा गया है
'विकृति का कारण उपस्थित होने पर भी चित्त का विकृत न होना सत्त्व कहलाता है। बीज के प्रारम्भिक विकार के समान उस सत्त्व से थोड़ा विकृत हो जाना भाव कहलाता है।
भावो यथा ममैव
बाला प्रसाधनविधौ विदधाति चित्तं दत्तादरा परिणये मणिपुत्रिकाणाम् । सा शङ्कते निजसखीमन्दहासै
रालक्ष्यते तदिह भावनवावतारः ।।103।। अत्र पूर्व शैशवेन रसानभिज्ञस्य चित्तस्य सम्भूतत्वाद् भावः । भाव जैसे शिभूपाल का ही
षोडशी (रमणी) प्रसाधन (सजावट) के कार्यों में मन लगाती है, मणिपुत्रिकाओं (गुड्डेगुडी) के विवाह (के खेल) में आदर देती (रुचि लेती) है, अपनी सखियों की मन्द हँसी से लज्जित हो जाती है, इस प्रकार उसमें (कामविषयक) नये भाव का अवतरण (उदय) हो रहा है।।103 ।।
यहाँ पहले शैशव के कारण रस से अनभिज्ञ चित्त के उत्पन्न होने से भाव है। अथ हाव:
प्रीवारेचकसंयुक्तो भ्रूनेत्रादिविलासकृत् । भाव ईषत्प्रकाशो यः स हाव इति कथ्यते ।।१९३।।