________________
[६०।
रसार्णवसुधाकरः
अथ लावण्यम्
मुक्ताफलेषुच्छायायास्तरलत्वमिवान्तरा ।
प्रतिभाति यदङ्गेषु लावण्यं तदिहोच्यते ।।१८१।।
३. लावण्य- अङ्गों में छिपी हुई जो मोतियों की छाया के समान चमचमाहट प्रतिभाषित होती है, उसे लावण्य कहा जाता हैं।।१८१॥
यथा
अङ्गेषु स्फटिकादर्शदर्शनीयेषु जृम्भते ।
अमला कोमला कान्तिोत्नेव प्रतिबिम्बिता ।।77 ।। जैसे
(नायिका के) स्फटिक (मणि) के दर्पण में दर्शनीय (देखने योग्य) अङ्गों में चाँदनी के समान स्वच्छ और कोमल प्रतिबिम्बित कान्ति खिल रही है।।77 ।।
अथ सौन्दर्यम्
अङ्गप्रत्यङ्गकानां य सनिवेशो यथोचितम् ।
सुश्लिष्टः सन्धिभेदः स्यात् तत् सौन्दर्यमुदीर्यते ।। १८२।।
४. सौन्दर्य- अङ्गों-प्रत्यङ्गों का जो यथोचित सुश्लिष्ट (अच्छी प्रकार से मिला हुआ) सन्धिभेद (स्पष्ट होता हुआ जोड़ वाला) का सनिवेश है, वह सौन्दर्य कहलाता है।।१८२॥
यथा (मालविकाग्निमित्रे२.३)
दीर्घाक्षं शरदिन्दुकन्तिवदनं बाहू नतावंसयोः संक्षिप्तं 'निविडोन्नतस्तनमुरः पार्श्वे प्रमृष्टे इव । मध्ये पाणिमितो नितम्ब जघनं पादावरालाङ्गली
छन्दो नर्तयतुर्यथैव मनसि श्लिष्टं तथास्या वपुः ।।78 ।। जैसे (मालविकाग्निमित्र २.३में)
इस (मालविका) का बड़ी-बड़ी आँखों वाला तथा शरत्कालीन चन्द्रमा की कान्ति से युक्त मुख, कन्धों पर से कुछ झुकी हुई भुजाएँ, उन्नत एवं कठोर स्तनों से जकड़ी हुई छाती, पार्श्व परिमार्जन के समान मुट्ठीभर कमर, मोटी जङ्घाएँ, झुकी हुई अङ्गुलियों वाले पैर हैं। इससे ज्ञात होता है कि मानों इसका सम्पूर्ण शरीर इसके नाट्यगुरु (गणदासजी) के कहने पर गढ़ा गया होगा।।78।।
अथाभिरूपता
यदात्मीयगुणोत्कर्वस्त्वन्यन्निकटस्थितम् । सारूप्यं नयति प्राज्ञैराभिरूप्यं तदुच्यते ।।१८३।।