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रसार्णवसुधाकरः
भावानुबन्धाभावेन
नायिकात्वपराहतेः । तस्याः प्रकरणादौ च नायिकात्वविधानतः ।। ११७।। अनायिकावर्णने तु रसाभासप्रसङ्गतः ।
प्रकरणादीनामरसाश्रयतागतेः ।। ११८ ।।
तथा
रसाश्रयं तु दशधेत्यादिशास्त्रविरोधतः । तस्मात्साधारणस्त्रीणां गुणशालिनि नायके ।। ११९ ।। भावानुबन्धः स्यादेव रुद्रटस्यापि भाषणात् ।
(विरक्ता गणिका) निर्लिप्तभावहीन होने के कारण (प्रकरण इत्यादि की) नायिका नहीं हो सकती किन्तु उस (विरक्ता) का प्रकरण आदि में नायिका के रूप में वर्णन होने तथा अनायिका के रूप में प्रसंगवशात् वर्णन होने पर रसाभास के होने और प्रकरण इत्यादि में रस की आश्रयता को प्राप्त न होने तथा 'रसाश्रय दस प्रकार का होता है' इस शास्त्र का विरोध होने से भी वेश्या का गुणशाली नायक में भावानुबन्ध होता ही है - ऐसा रुद्रट के कथन से प्रतीत होता है ।। ११७-१२०पू.।।
तथाह रुद्रटः (शृङ्गारतिलके १.१२८) - "ईर्ष्या कुलस्त्रीषु न नायकस्य, निशङ्ककेलिर्न पराङ्गनासु । वेश्यासु चैतद् द्वितयं प्ररूढ़ सर्वस्वमेतास्तदहो स्मरस्य " || इति ||
उदात्तादिभिदां केचित् सर्वासामपि मन्वते ।। १२०।।
तास्तु प्रायेण दृश्यन्ते सर्वत्र व्यवहारतः ।
जैसा रुद्रट ने (शृङ्गारतिलक में) कहा है
नायक की कुलस्त्रियों के प्रति ईर्ष्या नहीं होती और दूसरे की स्त्रियों के साथ
( समागम के समय) निःशङ्क होकर कामक्रीडा नहीं होती किन्तु (अनुरक्त) वेश्याओं (के साथ समागम) में ये दोनों अत्यधिक बढ़े हुए होते हैं क्योंकि ये (वेश्याएँ) कामदेव की सर्वस्व (सम्पूर्णता) होती हैं।
कुछ आचार्य इन सभी नायिकाओं के उदात्तादि ( उदात्त, मध्यम और अधम ) भेद माने हैं उनको लोक व्यवहार में देख लेना चाहिए ।।१२०उ.१२१पू.।।
अथासामष्टावस्था
प्रथमं प्रोषितपतिका वासकसज्जा ततश्च विरहोत्का । । १२१ । । अथ खण्डिका मता स्यात् कलहान्तरिताभिसारिका चैव ।