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रसार्णवसुधाकरः
जैसे शृङ्गारतिलक १.१२७ में)--
(जिस सुरत में) गाढे आलिङ्गन के कारण स्तनतट (चुचुक) दबा दिये जाते हैं, निकलने वाले पसीने से गाल तर हो जाते है, (वेश्या के) होठ (नायक द्वारा) काट लिये जाते हैं, (वेश्याओं द्वारा) सी-सी की ध्वनि की जाती है, (वेश्या की) आँखे चञ्चल बरौनियों से युक्त हो जाती हैं, (वेश्या के) हाथ (इधर-उधर) हिलते डुलते रहते हैं, जो (सुरत वेश्या की) चाटुकारिता भरे विचित्र वचन से युक्त होता है और जो (सुरत) कामदेव का हस्तगत घर है- ऐसा वेश्याओं का सुरत भाग्यशाली जन ही पाते हैं।।58 ।।
एषा स्याद् द्विविधा रक्ता विरक्ता चेति भेदतः ।।१११।।
सामान्या नायिका के भेद- रक्ता और विरक्ता भेद से यह (सामान्या नायिका) दो प्रकार की होती है।।१११उ.॥
तत्र रक्ता तु वा स्यादप्रधान्येन नाटके ।
अग्निमित्रस्य विज्ञेया यथा राज्ञ इरावती ।।११२।।
उन (सामान्य नायिकाओं ) में रक्ता (सामान्या नायिका) नाटक में अप्रधान (गौड़) रूप से वर्णित होती है। जैसे- (मालविकाग्निमित्र नाटक में) राजा अग्निमित्र की इरावती (नामक-नायिका) को समझना चाहिए।।११२॥
प्रधानमप्रधानं वा नाटकेतररूपके ।
सा चेद् दिव्या नाटके तु प्रधान्येनैव वय॑ते ।।११३।।
नाटक से अन्य प्रहसन आदि रूपकों में प्रधान अथवा अप्रधान रूप से वर्णित होती है। यदि वह (रक्ता सामान्या नायिका) दिव्या (देवलोक से सम्बन्धित) होती है तो नाटक में भी प्रधान रूप से (नायिका के रूप में) वर्णित होती है।।११३॥
यथा (विक्रमोर्वशीये२.२)
आ दर्शनात्प्रविष्टा सा मे सुरलोकसुन्दरी ।
बाणेन मकरकेतोः कृतमार्गमवन्ध्यपातेन ।।59।। जैसे- (विक्रमोर्वशीय २.२मे)(उत्कण्ठित राजा पुरुरवा विदूषक से कहता है)
वह देवसुन्दरी जब से मैंने उसे देखा, तभी से मन्मथ के अमोघ शरसम्पात से भित्र हुए अथ च प्रवेश के लिए मार्ग बना दिये गये मेरे हृदय में सम्प्रविष्ट हो गयी है (अब कैसे उसे भूलूँ?)।।59।।
यहाँ नाटक में देवलोक से सम्बन्धित होने के कारण उर्वशी दिव्या रक्ता सामान्या नायिका है, अत: विक्रमोर्वशीय नाटक में प्रधान रूप से वर्णित है।